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________________ गोशालक के जाते ही संगम देव प्रभु महावीर की साधना में विघ्न डालने आ गया। प्रभु महावीर को उसने न निर्विघ्न ध्यान करने दिया, न पारणे हेतु भोजन करने दिया। प्रभु महावीर को ध्यान से च्युत करने के लिए अनगिनत परीषह उसने प्रभु महावीर के सामने उपस्थित किये। प्रभु महावीर की अडोलता के सामने समस्त देव-बल हार गया। प्रभु महावीर ने इस सहनशीलता से यह दिखाया कि मनुष्य-जन्म कितना श्रेष्ठ है, यह विषय-विकारों में गँवाने के लिये नहीं है। मनुष्य-जन्म परम दुर्लभ है। देव व नारकी तो कर्मबन्धन के अनुसार क्रमशः सुख व दुःख भोगते हैं। __मनुष्य कर्मशील है, कर्म-प्रधान है। सभी योनियों में मनुष्य-योनि श्रेष्ठ है क्योंकि इसी योनि में रहकर मनुष्य चाहे तो स्वर्ग या मोक्ष पा सकता है और विपरीत कर्म के द्वारा नरक भी पा सकता है। मनुष्य-जन्म में ही धर्म किया जा सकता है। देवता धर्म करने में असमर्थ हैं। देवता किसी भी प्रकार की साधना नहीं करते। वे पूर्व संचित कर्म द्वारा सुखों का उपार्जन करते हैं। लम्बे समय तक भोगते हैं। नरक व स्वर्ग दोनों भोग की भूमियाँ हैं। कर्मभूमि तो यह संसार है, जहाँ करनी व भरनी साथ-साथ चलती है। जब संगम देव ने देखा कि मेरे द्वारा दिये गए उपसर्गों से प्रभु महावीर न तो साधना से डगमगाये हैं, न इनके चेहरे पर घबराहट का निशान है, न ही मेरे प्रति क्रोध है। ___ अब संगम ने अवधिज्ञान से देखा तो पाया कि मेरे कष्ट देने से तो प्रभु महावीर का मनोबल पहले से ज्यादा दृढ़ हो गया है। उसे अपने किये पर पश्चात्ताप हुआ कि मैंने देवराज इन्द्र की बात को सत्य क्यों न माना? अब वह प्रत्यक्ष रूप में प्रभु महावीर के सम्मुख प्रस्तुत हुआ और प्रभु महावीर से क्षमा माँगते हुए कहने लगा-भगवन् ! देवराज इन्द्र ने जो आपके सम्बन्ध में कहा था, वह पूर्ण सत्य है। मैं भग्न प्रतिज्ञ हूँ। आप सत्य-प्रतिज्ञ हैं। अब आप प्रसन्नता से भिक्षा के लिए पधारिये। मैं किसी प्रकार की विघ्न-बाधाएँ उपस्थित नहीं करूँगा?'७ ___“मैंने छह मास आपको अनेक प्रकार के भयंकर कष्ट दिये हैं, जिसके कारण आप अच्छी प्रकार से साधना नहीं कर सके हैं। अब आनंद से साधना कीजिए। मैं जा रहा हूँ। अन्य देवों को भी ऐसा करने से रोकूँगा। वे आपको कष्ट नहीं देंगे।" संगम की बात का उत्तर देना महावीर प्रभु ने जरूरी समझा। उन्होंने कहा-“हे संगम ! मैं किसी की प्रेरणा से प्रेरित होकर या किसी के कथन को संकल्प में रखकर तप नहीं करता। मुझे किसी भी प्रकार के आश्वासन की जरूरत नहीं है।" इतने कष्ट झेलने वाले प्रभु महावीर का संगम को दिये गये मार्मिक उत्तर से सिद्ध होता है कि उनका शरीर का मोह इतना छूट चुका था कि कोई देव, दानव भी उन्हें कष्ट पहुँचाने में असमर्थ था। बीस उपसर्गों के बाद का समय कहाँ बीता। इस छह मास का वर्णन किसी भी ग्रंथ में उपलब्ध नहीं है। यह कोई विचारणीय प्रश्न नहीं; हो सकता है कि इतने समय में प्रभु महावीर की साधना में कोई भी उल्लेखनीय उपसर्ग न आया हो। इसीलिये किसी भी ग्रंथ में प्रभु महावीर के इन छह माह का वर्णन नहीं। इसी सन्दर्भ में संगम के उपसर्ग के बारे में परम श्रद्धेय आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. ने एक महत्वपूर्ण घटना की तरफ उनका ध्यान दिलाया है। “संगम जब क्षमा माँगकर जाने लगा तो प्रभु महावीर की आँखों में आँसू आ गये। संगम को प्रभु महावीर की आँखों में आँसू देखकर हैरानी हुई।" उसने प्रश्न उठाया है- “प्रभु ! आप-जैसे महाश्रमण की आँखों में आँसू क्यों हैं ? क्या कोई विकट वेदना है ?" ८६ सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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