________________
संन्यासी को गोशालक के मजाक पर इतना क्रोध आया कि उसने अपनी शक्ति का प्रयोग तेजोलेश्या के रूप में किया। पर धन्य हैं करुणा पुँज प्रभु महावीर, जिन्होंने गोशालक-जैसे अज्ञानी को शीतल लेश्या छोड़कर उसकी प्राण रक्षा की।
गोशालक तेजोलेश्या से अनभिज्ञ था। प्रभु की शक्ति का आभास उस वैश्यायन तापस को लग चुका था। उसने विनम्र भाव से प्रभु से कहा-'भगवन् !मैंने आपको जान लिया।
गोशालक इस संकेत को न समझ सका। वह संन्यासी को चिढ़ाने के लिए बोला-“यह सुंओं का घर क्या कह रहा है?"
प्रभु ने स्पष्टीकरण करते हुए कहा-"इसने तप-तेज से प्राप्त तेजोलेश्या की शक्ति का प्रयोग किया था, पर मेरी शीतलेश्या की शक्ति से तेजोलेश्या का प्रभाव क्षीण हो गया। इसलिए यह कह रहा है कि अगर मैं पहले जानता कि यह आपका शिष्य है, तो मैं कभी ऐसा अज्ञानपूर्ण कदम न उठाता?"
तेजोलेश्या की बात सुनकर गोशालक घबरा गया। उसे भय व आतंक सताने लगा। उसने प्रभु से पूछा-“प्रभु ! यह तेजोलेश्या क्या होती है ? इसे किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है।''
सहज व सरल योगी प्रभु महावीर ने इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा-“कोई मनुष्य ६ मास तक निरन्तर छट्ठ तप के साथ सूर्य के सामने दृष्टि रखकर खड़ा-खड़ा आतापना लेता है वह छट्ठम का पारणा भी मुट्ठीभर उड़द और चुल्लूभर गर्म पानी से करता है, उस तपस्वी को थोड़ी-बहुत तेजोलेश्या प्राप्त हो जाती है।"
गोशालक को प्रश्न का उत्तर मिल गया था। अब वह तेजोलेश्या की प्राप्ति हेतु प्रयास जुटाने लगा।
प्रभु महावीर ने कुछ समय के बाद पुनः सिद्धार्थपुर विहार किया। जब वह तिल वाले स्थान से गुजर रहे थे तो गोशालक शंकित होकर कहने लगा-"आपकी भविष्यवाणी गलत निकली है वह पौधा तो उगा नहीं।"
भगवान को पता था कि गोशालक ने वह पौधा उखाड़कर कहीं और फेंक दिया है। वह पौधा वहीं पर वर्षा के योग से पुनः स्थापित हो गया था।"
भगवान महावीर ने उसी पौधे को दिखाते हुए कहा-“तेरे द्वारा उखाड़ा पौधा वह स्थापित है।'
गोशालक ने पौधे को देखा, तो उसे विश्वास न हुआ। वह तिल के पौधे के समीप गया। उसने एक फली तोड़ी। उसमें तिलों की संख्या सात थी। इस घटना ने गोशालक को नियतिवाद की ओर ज्यादा आकर्षित किया। उसे विश्वास हो गया। इस प्रकार हर जीव मरकर पुनः उस योनि में उत्पन्न होते हैं।
अब गोशालक के मन में तेजोलेश्या की प्राप्ति की चाह इतनी बढ़ गई कि उसने अपने गुरु प्रभु महावीर को छोड़ दिया। वह श्रावस्ती नगरी आया। वही श्रावस्ती आगे जाकर नियतिवाद के प्रचार का केन्द्र भी बना। उसने वहाँ एक हालाहला नाम की सम्पन्न कुम्हारिन के यहाँ अड्डा जमाया। वहीं रहकर वह तेजोलेश्या की साधना प्रभु द्वारा बताई विधि अनुसार करने लगा।
इस प्रकार गोशालक ने ६ मास निरन्तर छट्ठम तप किया। सूर्य के सामने आतापना ली। प्रभु के बताये ढंग के अनुसार पारणा किया। उसे इस तप के प्रभाव से तेजोलेश्या प्राप्त हो गई।
तेजोलेश्या का अब प्रयोग करना शेष था। एक दासी कुएँ से पानी भर रही थी। बेचारी उस दासी पर गोशालक ने तेजोलेश्या का दरुपयोग किया। दासी के प्राण जाने का कारण गोशालक की शक्ति बनी।५८ उसने शोण, कनिन्द्र, कार्णीक. अहिल्या, अग्निवेश्या और अर्जुन से यहीं रहकर निमित्तशास्त्र के कुछ अंश पढ़े, जिससे वह सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीवन-मरण इन बातों में सिद्ध वचन नैमित्तिक बन गया।
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org