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पुरिमताल से विहार कर प्रभु उन्नाग पधारे। फिर यहाँ से गौभूमि होते हुए राजगृह पधारे।
लगता है इस भ्रमण में प्रभु ने उत्तर प्रदेश के काफी नगरों, गाँवों का भ्रमण किया होगा। वर्णन उन गाँवों का है, जहाँ कुछ घटित हुआ है। ___ प्रभु चातुर्मास के लिए मगध की राजधानी राजगृह पधारे। वहाँ प्रभु ने चातुर्मासी तप किया। विभिन्न योग क्रियाएँ सम्पन्न की। चातुर्मास पूर्ण होते ही आपने तप का पारणा किया। नवमा वर्ष ___ इस वर्ष प्रभु का विहार मगध के विभिन्न अञ्चलों में हुआ। प्रभु ने सोचा-'अभी मुझे कर्म की निर्जरा करनी है इसलिए अनार्य क्षेत्रों में विचरण उपयोगी रहेगा।' जैसे पहले वर्णन किया जा चुका है। इस काल का सचित्र वर्णन आचारांगसूत्र में उपलब्ध है।
इस विचार को क्रियान्वित करने हेतु प्रभु ने सर्वप्रथम राढ़ देश के वज्र भूमि व शुभ्र भूमि जैसे अनार्य प्रदेशों में भ्रमण किया। वे उस अनार्य देश की अनार्य संस्कृति को अच्छी तरह जानते थे। __ अनार्य स्त्री-पुरुषों को तो महावीर एक खिलौने से ज्यादा प्रतीत नहीं होते थे। वे खुशी से प्रभु वर्द्धमान के शरीर का शिकार करते। वे प्रभु को शिकार की वस्तु समझकर उनके कोमल शरीर को कष्ट देते थे। वे
को देखते, उन्हें घेर लेते। उनके शरीर पर हथियारों से प्रहार करते। उनके पीछे शिकारी कुत्ते लगाते। लाठी, पत्थरों से उन्हें पीटते। इन सब यातनाओं को वह सहर्ष सहते थे। वह इन यातनाओं का कारण अनार्य पुरुष-स्त्रियों को नहीं मानते थे। वह हिंसा का कारण अज्ञानता को मानते थे। अज्ञान सब पापों की जननी है।
जैसे मेरु पर्वत भूचाल में भी कम्पायमान नहीं होता है। इसी तरह प्रभु भी ध्यानस्थ खड़े रहते थे। वह विचार करते कि वे पुरुष-स्त्री भी मेरे मित्र हैं जो कि मेरी कर्म की जंजीरें तोड़ने में सहायक हो रहे हैं। प्रभु ने इस प्रकार के आचरण से सभी कषायों को क्षीण कर दिया। ___ अनार्य देश ऐसे क्षेत्र थे, जहाँ प्रभु को ठहरने को कोई आवास स्थान नहीं मिला वे प्रायः वृक्षों के नीचे ही ध्यान करते। यह नौवाँ चातुर्मास घूमते ही बीता। प्रभु ६ मास इन क्षेत्रों में कष्ट को झेलते घूमते रहे। उन्हें भोजन-पानी मिलने का प्रश्न नहीं था। भगवान पुनः अनार्य देश से आर्य देश पधारे। दसवाँ वर्ष __ प्रभु महावीर व मंखलि-पुत्र गोशालक सिद्धार्थपुर पहुंचे। वहां कुछ दिन रहने के पश्चात् वह कूर्मग्राम जा रहे थे। रास्ते में एक तिल के पौधे को देखकर गोशालक ने पूछा-“प्रभु ! यह पौधा उत्पन्न होगा या नहीं? अगर उत्पन्न होगा, तो एक फली से कितने तिल के दाने प्राप्त होंगे?' प्रभु तो ज्ञानी थे। उन्होंने गोशालक के प्रश्न का समाधान करते हुए कहा-“यह पौधा जरूर फल देगा। फूल वाले पौधे की एक फली में सात तिल निकलेंगे।'' गोशालक को प्रभु की बात का विश्वास न हुआ। उसने प्रभु की पीठ फेरते ही वह पौधा उखाड़ दिया।
दोनों आगे चले। कूर्मग्राम आया। उस ग्राम के बाहर वैश्यायन नामक एक तापस जिसने प्राणायाम दीक्षा अंगीकार की थी, धूप में औंधे मस्तक लटकता हुआ तप कर रहा था। धूप से व्याकुल हुई जटाओं से जुंए निकलकर धरती पर आ रही थीं। वह पुनः उन हुँओं को उठाकर अपनी जटा में रख लेता।
गोशालक यह तमाशा देख रहा था। अपने स्वभाव के कारण उसने यहाँ भी झगड़ा खड़ा कर दिया। वह संन्यासी का मजाक करते हुए कहने लगा-"तू साधु है या लुओं का स्थान।"
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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