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________________ शुरू किया। उसने सर्वप्रथम परिव्राजक रूप बनाया। अपनी बिखरी जटाओं में ठण्डा पानी भर-भरकर प्रभु के शरीर पर छिड़कने लगी। फिर उसने अपने देव-बल से शीत वायु चलाई, जो प्रभु के कंधों तक को छूती थी। उसने भीषण और असाधारण उपसर्ग दिये। प्रभु इन सब उपसर्गों में क्षणभर भी विचलित न हुए। कटपूतना द्वारा दिये उपसर्गों को धैर्यपूर्वक सहने के कारण भगवान को “लोकाऽवधि" ज्ञान प्राप्त हो गया। इस ज्ञान के प्रभाव से आप लोकवर्ती समस्त द्रव्यों को हस्ताकमलवत् जानने व देखने लगे। अन्त में महावीर की धैर्य और क्षमाशीलता के सामने कटपूतना हार गई। उसने अपने क्रोध को शान्त किया। कटपूतना अपने असली रूप में आई। उसने अपने पापों का पश्चात्ताप किया। उसने प्रभु से क्षमा मांगी और स्व-स्थान पर चली गई। शालिशीर्ष से विहार कर प्रभु भद्रिका नगरी पधारे। अब वर्षावास का समय आ चुका था। सो प्रभु योग्य स्थान की तलाश में घूमने लगे। इधर गोशालक स्थान-स्थान पर भटक रहा था। वह यह सोचकर अलग हुआ था कि मुझे महावीर के कारण कष्ट उठाने पड़ते हैं। पर उसकी अब हालत बुरी से बुरी होती गई। वह ६ मास अलग विचरण करने के बाद पुनः प्रभु महावीर से आ मिला। प्रभु ने यह चातुर्मास भद्रिका नगरी में बिताया। इस चातुर्मास में आपने चातुर्मास तप किया। भिन्न-भिन्न योगासन व ध्यान की क्रियाएँ कीं। चातुर्मास समाप्त होते ही आपने सर्वप्रथम पारणा किया। सातवाँ वर्ष मगध भूमि में चातुर्मास समाप्त कर प्रभु ने मगध देश की ओर विहार किया। मगध देश में गर्मी व सर्दी के कष्टों को सहन किया। फिर इसी देश की आलंभिया नगरी में चातुर्मास किया। चातुर्मासिक तप और विविध योग साधनाएँ सम्पन्न की। चातुर्मास के अन्त में पारणा कर आपने वहाँ से विहार किया। यहाँ से चलकर आप कोल्लाग सन्निवेश की ओर पधारे। आपने कोल्लाग सन्निवेश में नगर के बाहर एक उद्यान में बने वासुदेव के मन्दिर को ध्यान-स्थल बनाया। काफी दिन वह ध्यान-साधना करते रहे। __ यहाँ प्रभु के किसी प्रकार के उपसर्ग का वर्णन उपलब्ध नहीं होता। आठवाँ वर्ष कोल्लाग सन्निवेश में विहार कर भद्दणा सन्निवेश में पधारे। वहाँ उद्यान में बने बलदेव के मन्दिर में ध्यान लगाया। यह मन्दिर नगर से बाहर था। भद्दणा सन्निवेश से आप बहुसाल होते हुए लोहार्गला पधारे। लोहार्गला के राजा जितशत्रु पर उन दिनों शत्रुओं का काफी आतंक था। नगर-व्यवस्था में काफी चौकसी बरती जा रही थी। हर स्थान पर गुप्तचर घूम रहे थे। किसी भी बाहर के आदमी को पूरी जानकारी प्राप्त होने पर ही नगर में प्रवेश की आज्ञा थी। प्रभु महावीर व गोशालक अपनी धुन में जा रहे थे। वे नगर-सीमा पर पहुँचे। पहरेदारों ने परिचय माँगा। दोनों ने कोई उत्तर नहीं दिया। दोनों को राजा के सैनिकों ने गिरफ्तार कर लिया। बंदी बनाकर राजसभा में राजा के सम्मुख प्रस्तुत किया गया। राजसभा में उस समय उत्पल नामक नैमित्तिक उपस्थित था। भगवान को देखते ही श्रद्धावश खड़ा हो गया और कहने लगा-"ये गुप्तचर नहीं हैं; राजा सिद्धार्थ के पुत्र धर्म चक्रवर्ती हैं। चक्रवर्ती-जैसे इनके शरीर के लक्षणों को तो देखो।" उत्पल से परिचय पाकर राजा ने दोनों को सम्मानपूर्वक मुक्त किया। क्षमा याचना माँगी। लोहार्गला से विहार कर प्रभु पुरिमताल (अयोध्या) पधारे। वहाँ शकटमुख उद्यान था। कुछ समय इस उद्यान में ध्यान किया। यहाँ आपका स्वागत वागुर श्रावक ने किया। यह १२ व्रती श्रमणोपासक था। सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र - ७७ 7 ७७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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