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________________ को इन चोरों ने अपशकुन मानकर उन पर आक्रमण किया। उसी समय प्रभु की रक्षा के लिए स्वयं इन्द्र प्रत्यक्ष रूप में आया। अपनी सेवा का प्रमाण देते हुए उसने चोरों को भगा दिया। आप आर्य देश मलय में घूमने लगे। पाँचवाँ वर्षावास आपने मलय की राजधानी भद्दिल नगरी में किया। इस चातुर्मास में भी भगवान ने चातुर्मासिक तप और स्थान आदि आसन किये। चातुर्मास समाप्त होने पर भगवान ने भद्दिल नगरी के बाहर पारणा किया। फिर कदली समागम की ओर विहार किया। प्रभु की दीक्षा को पाँच वर्ष पूर्ण हो चुके थे। छठा वर्ष शुरू हो गया था। प्रभु कदली समागम में ध्यानस्थ हुए। कुछ समय वहाँ ठहरकर जंबुसडं पहुंचे। छठा वर्ष ___ जंबुसडं से विहार करते हुए प्रभु तंबाय सन्निवेश गये। वहाँ पहले से ही ठहरे पापित्य नन्दिसेण स्थविर घूम रहे थे। गोशालक उनसे मिलने चला गया। वहाँ वह उनसे भी झगड़ा मोल ले बैठा। तंबाय से प्रभु कूविय सन्निवेश क्षेत्र में पधारे। वहाँ काफी सतर्कता थी। प्रभु व गोशालक दोनों को गुप्तचर समझकर पकड़ लिया गया। राजपुरुषों ने प्रभु को खूब पीटा, पर प्रभु न बोले। वह तो मौन व ध्यान अवस्था में थे। परन्तु वहाँ भी विजया और प्रगल्भा दो परिव्राजिकाएँ तुरन्त घटना स्थल पर सूचना मिलते ही पहुँच गईं। वे निडरता से राजपुरुषों को फटकारने लगीं "तुम जिन्हें गुप्तचर समझ रहे हो, वह तो क्षत्रियकुण्डग्राम के राजा सिद्धार्थ के पुत्र हैं, अन्तिम तीर्थंकर हैं। क्या तुम इन्हें भी नहीं पहचानते ? इनकी सेवा तो देवाधिदेवराज इन्द्र स्वयं करते हैं। जब उन्हें तुम्हारी हरकत का पता चलेगा, तो तुम्हारा और तुम्हारे राजा का विनाश निश्चित है।'' परिव्राजिकाओं की फटकार काम कर गई। राज्याधिकारी प्रभु की महानता पहचान चुके थे। उन्होंने प्रभु से क्षमा माँगी। कृपासिन्धु परमात्मा भगवान महावीर ने मौन रहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। कूविय से भगवान महावीर वैशाली पहुंचे। वहाँ का प्रमुख चेटक प्रभु का मामा था। पर प्रभु ने जो प्रतिज्ञा की थी उसे निभाया। वह एक लुहार की शाला में ध्यानस्थ हुए। अगले दिन लुहार ६ महीने की बीमारी के पश्चात् जब कारखाने में आया, तो वह प्रभु को मारने दौड़ा। उसने पहले ही दिन प्रभु के दर्शन को अमंगलकारी और अकल्याणकारी माना। पर ज्यों ही उसने कदम बढ़ाये उसके पाँव उसी धरती पर स्तम्भित हो गये। लुहार को अपनी भूल का ज्ञान हो चुका था। अज्ञानतावश उसने ऐसा मान लिया था कि यह मुण्डित भिक्षु अमंगलकारी है। वह नहीं जानता था कि यह तो क्षत्रियकुण्डग्राम के राजा सिद्धार्थ के सुपुत्र व वैशाली की पुत्री त्रिशला के अंगजात राजकुमार हैं। प्रभु वैशाली से चल पड़े। फिर ग्रामक सन्निवेश में पधारे। उस ग्रामक सन्निवेश के एक उद्यान में विभेलक यक्ष था। वह प्रभु महावीर का बड़ा भक्त था। उसने वहाँ रहकर प्रभु की खूब सेवा की। प्रभु को कोई कष्ट नहीं होने दिया। वह स्वयं प्रभु की पूजा एवं भक्ति करने लगा। कटपूतना का उपद्रव प्रभु फिर ग्रामक नगर से शालिशीर्ष पधारे। नगर के बाहर उन्होंने आत्मभाव में विचरण करने वाला ध्यान लगाया। वे दिन माघ की ठण्ड के थे। भगवान का शरीर वस्त्ररहित था। वहीं कटपूतना नामक एक व्यंतरी ने प्रभु को घोर उपसर्ग दिया। भगवान के भव्य व अडोल रूप को देखकर वह द्वेष की आग से जल उठी। उसने उसी समय अपना रंग दिखाना ७६ सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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