SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गोशालक के इन्कार से उपनन्द क्रोधित हो गया। उसने अपनी दासी को आज्ञा दी-“इसको यही भिक्षा देनी है। अगर यह भिक्षा नहीं लेता है, तो उसके सिर पर डाल दो।" दासी ने वह बासी भोजन गोशालक के सिर पर डाल दिया। गोशालक क्रोध में इधर-उधर की बातें करने लगा। उसने उपनन्द को शाप तक दे डाला। पर गोशालक अभी इस काबिल नहीं था कि किसी को शाप या आशीर्वाद देता। यहाँ से विहार कर प्रभु अंग देश की राजधानी चम्पानगरी पधारे। वर्षावास का समय आ गया था। वर्षावास के समय में प्रभु ने दो-दो मास के उत्कृष्ट तप के साथ विविध आसन व ध्यानयोग की साधना की। पहले मासक्षपणक व्रत का पारणा चम्पा में किया। दूसरा पारणा चम्पा से बाहर किया।४९ इस प्रकार प्रभु गोशालक के साथ घूमने लगे। वर्षावास सम्पूर्ण होते ही प्रभु ने कालाय सन्निवेश की ओर विहार किया। चतुर्थ वर्ष कालाय सन्निवेश से वे पत्तकालाय पधारे। दोनों ही स्थानों पर उन्होंने रात्रि का समय खण्डहरों में बिताया।५० वे वहाँ ध्यानस्थ थे। इन दोनों स्थानों पर गोशालक के विपरीत स्वभाव के कारण गोशालक को लोगों से मार खानी पड़ी। पत्तकालय से आपने कुमारक सन्निवेश की ओर विहार किया। वहाँ पर चम्पक नामक उद्यान था वहाँ प्रभु ने ध्यान लगाया। कायोत्सर्ग प्रतिमा धारण करके रहे।५१ भगवान पार्श्वनाथ के श्रमणों में गोशालक की भेंट जब भिक्षा का समय आया तो गोशालक ने कहा-“चलो प्रभु ! भिक्षा के लिए चलें।" प्रभु ने कहा-“आज मेरा उपवास है।" गोशालक निकल पड़ा। उस समय पापित्य मुनि चन्द्र स्थविर, कुमारक सन्निवेश में कुम्हार कुवणय के स्थान पर ठहरे हुए थे। गोशालक ने रंग-बिरंगे कपड़ों में मुनि को देखा। गोशालक ने पूछा- "तुम कौन हो?" पापित्य–'हम श्रमण निर्ग्रन्थ परम्परा के मुनि हैं। प्रभु पार्श्वनाथ के शिष्य हैं।" गोशालक-"तुम कैसे निर्ग्रन्थ हो? इतने सारे वस्त्र और पात्र का परिग्रह तूने इकट्ठा किया है। सच्चे निर्ग्रन्थ तो मैं, मेरे धर्माचार्य हैं जो तप और त्याग की साक्षात् प्रतिमा हैं।'५२ पापित्य-"जैसा तू है, वैसे ही तेरे गुरु स्वयं गृहीतलिंग होंगे।'' गोशालक-"तुम मेरे तप-त्यागी गुरु का अपमान करते हो। मेरे धर्माचार्य के तप-तेज से तुम्हारा उपाश्रय जलकर भस्म हो जायेगा।" गोशालक के कहने पर उनका कोई नुकसान नहीं हुआ। पापित्य--"क्यों व्यर्थ कष्ट कर रहे हो? हम तुम्हारे-जैसों के शाप से न तो स्वयं भस्म होंगे, न ही हमारा उपाश्रय।" गोशालक इन मुनियों के उत्तर से चुप होकर वापस लौट आया। उसने आकर सारी बातें प्रभु से निवेदन की। प्रभु के सामने उसने कहा-'आज मेरी सारम्भ और सपरिग्रह श्रमणों से भेंट हुई। मेरे शाप देने से उनका कुछ भी नहीं बिगड़ा।" भगवान महावीर-“गोशालक ! वह मेरे से पहले हुए प्रभु पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमण हैं।" ___ सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र ७३ ७३ | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy