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गोशालक का स्वभाव चंचल, उद्धत व लोलुप था । यही स्वभाव प्रभु के लिए मुसीबत का कारण बना।
प्रभु ने अपना चातुर्मास नालंदा में सम्पन्न किया। वह चातुर्मास से विहार कर कोल्लाग सन्निवेश पहुँचे। यहाँ एक ब्राह्मण के घर पर प्रभु ने चातुर्मास तप का पारणा किया। चातुर्मास समाप्त पर भगवान नालंदा से विहार कर चुके थे।
गोशालक जब वापस उपाश्रय में आया, उसे प्रभु दिखाई न दिये । वह प्रभु की तलाश में उनके पीछे हो लिया। उसे कोल्लाग सन्निवेश में प्रभु महावीर के दर्शन हुए।
उसने प्रभु महावीर से पुनः शिष्य बनने की प्रार्थना की। पर इस बार प्रभु ने इस पर दया कर इसे शिष्य बनाना स्वीकार किया । ४७
तीसरा वर्ष
इस प्रकार
वर्ष साधनाकाल के बीत चुके थे। तीसरा वर्ष शुरू हो गया था। प्रभु कोल्लाग सन्निवेश से मंखलिपुत्र गोशालक को साथ लेकर जा रहे थे। प्रभु सुवर्णखल की तरफ आ रहे थे। रास्ते में एक जगह ग्वालों की टोली मिली। ग्वाले खाली बैठे थे । मस्ती के वातावरण में उन्होंने खीर पकानी शुरू की '
जैसे पहले कहा जा चुका है गोशालक जीभ का लोलुप था । उसने प्रभु से कहा- “भन्ते ! कुछ समय यहाँ रुक जाते हैं। खीर का भोजन खाकर चलेंगे।"
फिर गोशालक प्रभु महावीर के बारे में ग्वालों को परिचय कराने लगे - "हे आर्यो ! यह मेरे गुरु त्रिकालदर्शी ४८ सर्वज्ञ देवार्य हैं। "
फिर उसने प्रभु महावीर से पूछा - "प्रभु ! क्या ग्वालों की खीर पक जायेगी ?"
प्रभु महावीर ने भविष्यवाणी की - "गोशालक ! जिस खीर को खाने की तुम कामना करते हो, वह तो पकेगी नहीं, पकने से पहले इस खीर की हाँडी फट जायेगी ।"
गोशालक ने यह बात ग्वालों से कही। ग्वालों को प्रभु की सर्वज्ञता पर अटूट विश्वास हो गया। वे सोचने लगे'यह भिक्षु झूठ कैसे बोल सकता है ? इसलिए हमें इस हाँडी पर विशेष ध्यान देना चाहिए।'
उन्होंने बाँस की खपच्चियों से हाँडी को अच्छी तरह बाँध दिया। उस हाँडी के चारों ओर घेरा डालकर बैठ गये ।
इधर भगवान ने आगे प्रस्थान किया। गोशालक खीर की आशा के कारण ग्वालों के बीच बैठा रहा । खीर पक रही थी। हाँडी में दूध लबालब भरा हुआ था और ऊपर से चावलों की मात्रा भी ज्यादा डाल दी, चावल पक रहे थे । पककर चावल फूलने लगे। चावलों के फूलते ही हाँडी के फटकर दो टुकड़े हो गए। सारी खीर धूल में मिल गई ।
गोशालक की आशा निराशा में बदल गई।
इस घटना से गोशालक की खीर खाने की भावना धरी की धरी रह गई । पर इस घटना से उसका नियतिवाद पर विश्वास अटल हो गया।
वहाँ से विहार कर प्रभु ब्राह्मणग्राम पधारे। इस गाँव के दो स्वामी थे - एक भाग नन्दपाटक तथा दूसरा भाग उपनन्दपाटक था। भगवान महावीर नन्दपाटक वाले भाग घरों में भिक्षा के लिए पधारे। भगवान को बासी भोजन
प्राप्त हुआ ।
मंखलिपुत्र गोशालक भी उपनन्दपाटक में उपनन्द के यहाँ गया । उपनन्द की आज्ञा से उसकी दासी बासी बने तन्दुल, गोशालक को देने आई। पर गोशालक तो जीभ का लोलुपी था उसने इस भोजन को लेने से इन्कार कर दिया।
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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