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________________ "वहाँ से मरकर मैं पूर्व तप के कारण ज्योतिषी देव बना और वहाँ से चलकर इसी कनखल आश्रम में कुलपति का पुत्र कौशिक के रूप में पैदा हुआ। मैं बचपन से ही क्रोधी था। इतने बड़े आश्रम का अधिकार आ जाने के कारण मैं ज्यादा अहंकारी व क्रोधी हो गया था। मेरे गुस्से के कारण मुझे लोग चण्डकौशिक कहने लगे थे।" आश्रम से मेरा बेहद लगाव था। उसके हर वृक्ष, पत्ते, पुण्य का मैं स्वयं ध्यान रखता था। अगर कोई पत्ता भी तोड़ता, तो मैं फरसा (कुल्हाड़ी) लेकर उस व्यक्ति को मारने दौड़ता। एक दिन मैं किसी काम के कारण आश्रम में नहीं था। श्वेताम्बिका के राजकुमार खेलते-खेलते उस आश्रम में आ गये। उन्होंने मेरे आश्रम के बाग को पूर्ण रूप से उजाड़ दिया। वृक्षों को जड़ से उखाड़ दिया। सारा आश्रम अस्त-व्यस्त कर दिया। लता और पौधों को उखाड़कर ढेर लगा दिया। मैं अचानक वापस आया। अपना उजड़ा आश्रम देखा। इस परिस्थिति को देखकर मेरी आँखों में खून उतर आया। गुस्से से मेरे दिमाग की नसें फट रही थीं। मैं आपे से बाहर हो गया। मैं उन राजकुमारों को मारने के लिए एक तेज कुल्हाड़ी लेकर दौड़ा। मैंने उन्हें ललकारते हुए कहा-“अरे दुष्टो ! लो, अभी मैं तुम्हें इसका मजा चखाता हूँ, तुम्हारे गर्म व ताजे खून से वृक्षों की जड़ों को सींचूँगा।"३९ मेरे क्रोधित चेहरे को देखकर बालक घबरा गये। वे राजकुमार मुझे चिढ़ाने के लिए इधर-उधर भागने लगे। मैं उन्हें पकड़ने के लिए इधर-उधर भागा। भागते-भागते मेरा साँस फूल गया। शरीर पसीने से तर-बतर हो गया। क्रोधावेश में मैं भागा जा रहा था। मेरे हाथ में कुल्हाड़ी थी। मेरी आँखों के आगे अंधकार छा गया। मैं फिर भागा जा रहा था। रास्ते में एक गड्ढा था। मैं इस आवेश में गड्ढे में गिर गया। वही कुल्हाड़ी मेरे सिर पर लगी। मेरे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो गये। भयानक क्रोधावेश में मरकर मैं इसी कनखल आश्रम में दृष्टि-विष सर्प बना। इस जन्म में भी उसी क्रोध का क्रम चल रहा था। इसी कारण मैंने इस जंगल पर अपना साम्राज्य कायम किया। अपने जहर से सारे जंगल को जहरीला बना दिया। __ पूर्वभव याद आते ही नाग को अपने किये पर बहुत पश्चात्ताप हुआ। वह सोचने लगा-'मैंने पूर्वभव व इस भव के क्रोध के कारण कितना नुकसान उठाया है। इस भव में अब भी मेरा आतंक इस जंगल से गुजरने वाले हर प्राणी पर है। अब प्रभु जिनेश्वर की शरण मिल गई है। इस सुन्दर पश्चात्ताप का अवसर कहाँ मिलेगा? चण्डकौशिक अपनी भूल का पश्चात्ताप करने लगा। भगवान के दो शब्दों से वह प्रतिबुद्ध हुआ। उस नागराज ने प्रतिज्ञा की “आज से मैं किसी को न सताऊँगा। भगवन ! मुझे क्षमा करो। मुझ पतित पर करुणा करो। मैंने भयंकर अपराध किये हैं। इस विष भरे जीवन से मर जाना भला।" उसने उसी समय आजीवन अनशन व्रत किया।४० प्रभु महावीर ने वहाँ से प्रस्थान किया। भगवान महावीर को सुरक्षित देख लोगों को हैरानी व प्रसन्नता हुई। नागराज के जीवन के इस परिवर्तन से लोग चकित थे। जिसे मारने के लिए जनता आतुर रहती थी, अब उसकी पूजा के लिए तैयार थी। नागराज बिल में मुँह छिपाकर बैठ गया। कोई उस पर दूध डाल रहा था, कोई शक्कर, कोई कुंकुम का तिलक लगा रहा था। मधुरता और चिकनाहट के कारण वहाँ हजारों चींटियाँ आने लगीं। वह नाग के शरीर को खाने लगीं। इसी असह्य पीड़ा में चण्डकौशिक के जीव ने सर्प योनि में प्राण त्यागे। शुभ भावों के परिणामों से आयु पूर्ण कर वह आठवें स्वर्ग में देव बना। इस प्रकार भगवान ने साधक अवस्था में एक तिर्यंच जीव का उद्धार किया। ___ इस बात से यह सिद्ध होता है कि प्रभु अन्तर्यामी थे। वह मनुष्य की भाषा के साथ-साथ पशुओं की भाषा भी समझते थे। सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र ६९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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