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________________ साँप ने दूसरी व तीसरी बार ऐसा वार किया। पर उसका कोई फल नहीं निकला। अब साँप को क्रोध आ गया। पूरे आवेश के साथ उसने प्रभु के चरणों पर दंश मारा। इस बार उसने जो देखा वह असम्भव था। लाल रुधिर के स्थान पर दूध की धारा बह रही थी। प्रभु के चेहरे पर शान्त भरी मुस्कराहट दिखाई दे रही थी। वह अचल खड़े रहे। नागराज को विस्मय हुआ। अब सर्पराज ने प्रभु पर दूसरा आक्रमण पहले से ज्यादा भयंकर रूप में किया। पर साँप का आक्रमण विफल था। प्रभु को कौन गिरा सकता था? साँप ने तृतीय बार पुनः देवा मारा। पर वह महाश्रमण तो हिमगिरि की चट्टान की तरह अडोल रहे।३६ नागराज हार चुका था। उसने सोचा-'यह कोई असाधारण पुरुष है जिस पर मेरा आक्रमम प्रभावशाली असर नहीं दिखा रहा। वह प्रभु की ओर निहारने लगा। उसका सारा शरीर बिल से बाहर आ चुका था। उसने प्रभु की आँखों में बहता करुणा अमृत देखा, तो उसका विष शान्त हो गया। चण्डकौशिक का पूर्वभव व प्रतिबोध ___ संसार के महापुरुषों ने स्त्री-पुरुषों को प्रतिबोध दिया। ये उदाहरण आम मिल जाते हैं। पर देव व पशु जगत् को प्रतिबोध देने के उदाहरण जैनशास्त्रों में कई स्थानों पर उपलब्ध होते हैं। तीर्थंकर का जीव क्योंकि तीन ज्ञान का धारक होता है, वह प्रत्येक जीव के पूर्वभव को जानता है। महावीर को देखकर नागराज शान्त हो गया, तो उस समय भगवान महावीर ने कहा 'उवसम भो चण्डकोसिया !' ___ “चण्डकौशिक ! शान्त हो जाओ। जागृत होओ।" अज्ञानान्धकार में क्यों भटक रहे हो? पूर्वजन्म के अशुभ कर्मों के कारण तुम इस जन्म में सर्प रूप में पैदा हुए हो। यदि अब न सँभले तो फिर कब सँभलोगे?'३७ चण्डकौशिक-पूर्वभव नागराज ने जब ‘चण्डकौशिक' शब्द सुना तो उसे भी जातिस्मरण (पिछले जन्म का) ज्ञान उत्पन्न हो गया।३८ भगवान महावीर के वचनामृत सुनते ही उसके सामने उसका पूर्वभव चलचित्र की भाँति घूमने लगा। नागराज सोचने लगा-'चण्डकौशिक' नाम मैंने कभी कहीं सुना है।' वह शान्त हो चुका था। उसे ध्यान आया कि अब से तीन जन्म पहले मैं एक श्रमण था। उग्र तपस्या करता था। मेरा शरीर सूख चुका था। एक बार भिक्षार्थ घूमते हुए मेरे से असावधानी के कारण एक मेढ़क पाँव के नीचे आकर मारा गया। मेरा एक छोटा शिष्य था। उसने मुझे कहा-“गुरुजी ! इस मेढ़क-हत्या का प्रायश्चित्त लो।' ____ मैंने अपने शिष्य की अच्छी हितकारी बात पर ध्यान न दिया। मैंने शिष्य की ओर घूरते हुए एक अन्य मरे मेढ़क की ओर इशारा किया और उससे पूछा-"क्या ! इसे भी मैंने मारा है?' __ शिष्य ने मुझे क्रोधित देखकर उत्तर न दिया। हम दोनों उपाश्रय आ गये। सन्ध्या के प्रतिक्रमण का समय हो गया। शिष्य ने मुझे इस प्रतिक्रमण में अज्ञानवश हुए मेढ़क-वध की हत्या का प्रायश्चित्त करने को कहा। “मुझे शिष्य की बात पर क्रोध आ गया। उपाश्रय में अंधेरा था। मैं वृद्ध था। मैंने एक डण्डा लिया। उस डण्डे से शिष्य को पीटने के लिए दौड़ा। रास्ते में एक खम्भा था। मैं शिष्य के पीछे भागा। मेरा सिर खम्भे से टकरा गया। इस टक्कर में मैं लहूलुहान हो गया। बिना दण्ड प्रायश्चित्त किये मैं मृत्यु को प्राप्त हुआ।" सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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