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________________ से अपने घर-परिवार का पोषण करते थे। प्रभु महावीर के अपूर्व प्रभाव से लोगों की मनोकामनाएँ उनके दर्शन से पूरी होने लगीं । वह ज्योतिषी महावीर से जलने लगा। पर प्रभु महावीर के अभूतपूर्व प्रभाव के सामने उनकी ऋद्धियाँ, मंत्र-यंत्र बेकार हो गये । वह घबराकर प्रभु महावीर के पास आया। आकर निवेदन करने लगा - "भगवन् ! आपका व्यक्तित्त्व अपूर्व है। आप अन्यत्र पधार जायें, क्योंकि आपके यहाँ ठहरने से हमारा धन्धा चौपट हो गया है। मेरे बच्चे तो भूखे मर रहे हैं। अब हम दूसरी जगह जाने में असमर्थ हैं क्योंकि वहाँ परिचय न होने के कारण हमें कौन पूछेगा । ३४ करुणा सागर प्रभु महावीर ने ज्योतिषियों की पुकार को सुना और तत्काल वहाँ से विहार कर दिया । वह वाचाला सन्निवेश गये । इस सन्निवेश के दो भाग थे - (१) उत्तर वाचाला, (२) दक्षिण वाचाला । दोनों सन्निवेशों में सुवर्णबालुका और रुण्यबालुका नाम की दो नदियाँ बहती थीं। भगवान महावीर दक्षिण वाचाला होकर उत्तर वाचाला को जा रहे थे। तब उनका दीक्षाकालीन आधा देवदूष्य भी सुवर्ण बालुका नदी के तट पर गिर गया। भगवान ने उस वस्त्र को छोड़ दिया। यह वही वस्त्र था जिसको गरीब ब्राह्मण ने रफू करवाकर नन्दीवर्द्धन राजा से सवा लाख स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त की थीं। प्रभु ने पुनः वस्त्र ग्रहण नहीं किया । दक्षिण वाचाला से उत्तर वाचाला को जाने के दो मार्ग थे-एक कनखल आश्रम से होकर और दूसरा बाहर आश्रम का मार्ग सीधा होने पर भी निर्जन, भयानक व विकट संकटयुक्त था। बाहर का रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा था । पर सुगम और विपत्तियों से रहित था । महावीर छोटे-छोटे गम्भीर कदमों को आगे बढ़ाते हुए चले जा रहे थे। रास्ते में ग्वाल-बालों से भेंट हुई। उन्होंने देखा एक भिक्षु अकेले मस्त चाल से उस भयानक रास्ते की ओर बढ़ रहा है। वे बालक प्रभु के ओज मण्डित मुख प्रभावित हुए। उन्होंने देखा, एक भिक्षु खतरनाक विषधर चण्डकौशिक की बाबी की ओर बढ़ रहा है। यह नाग हमेशा झाड़ियों में छिपा रहता है। महावीर नाग का भक्ष्य न बन जायें, इसलिए हमें इन्हें रोकना चाहिए । ग्वाल-बाल आगे बढ़े। उन्होंने प्रभु महावीर को रास्ते में रोककर प्रार्थना की- "देवार्य ! यह मार्ग संकट से भरा हुआ है। इसमें एक भयंकर विषधारी नाग रहता है जिसकी दृष्टि में विष है। यह नाग अपनी विष ज्वाला से मुसाफिरों को जलाकर भस्म कर देता है। यही कारण है कि यह सीधा रास्ता सुनसान है। आप इस मार्ग को छोड़ बाहर के मार्ग से जायें, तो अच्छा रहेगा । ३५ 1 प्रभु महावीर तो जगत् गुरु जगत् का कल्याण करने वाले थे। उन्होंने शुभ चिन्तक बालकों की ओर ध्यान न देकर नाग के कल्याणार्थ आगे बढ़ना अच्छा समझा । वह आगे बढ़े और सर्प के बिल के समीप एक देवालय में जाकर ध्यानस्थ हो गये। वह जंगल बड़ा भयंकर था । उस साँप के आतंक के कारण हरे-भरे जंगल जल गये थे । चहुँ ओर अस्थि - पिंजर नजर आ रहे थे। पर, महाश्रमण मौन, अभय और अजातशत्रु थे । वे तो आत्म-साधक थे। इधर प्रभु ध्यानस्थ हुए। उधर साँप सारा दिन जंगल का चक्कर लगाकर वापस आ गया। उसने देखा कि एक मनुष्य जंगल में खड़ा है। उसे बहुत हैरानी हुई और उसने सोचा- "मेरे आतंक से तो वर्षों से इस रास्ते में कोई प्राणी नहीं गुजरा। अब इस मनुष्य की क्या हिम्मत कि वह यहाँ आये । ध्यान भी मेरे बिल के ऊपर लगाये ।" उसने विषमय दृष्टि फेंकी। प्रभु पर कोई असर नहीं हुआ । साधारणतः उसके एक वार से मनुष्य भस्म हो जाते थे । Jain Educationa International सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र For Personal and Private Use Only ६७ www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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