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________________ आचारांग सूत्र के अनुसार प्रभु ने किसी के पात्र में भोजन नहीं किया। पर आवश्यक सूत्र के टीकाकारों के अनुसार इस घटना से पहले प्रभु गृहस्थ के पात्र में भोजन ग्रहण कर लेते थे। ये कठोर एवं भयंकर प्रतिज्ञाएँ थीं जिनके कारण को अनेक विकट उपसर्ग सहने पड़े। लोग उन्हें कष्ट देते, वह आह तक न करते। लम्बे-लम्बे गुप्त तप करते। शूलपाणि यक्ष के उपद्रव __ प्रभु ने आश्रम छोड़ा तो अस्थिकग्राम के बाहर एक मन्दिर में रात्रि ठहरने के लिए आज्ञा माँगी। पुजारी ने कहा"भिक्षु ! तुम्हारे यहाँ ठहरने में कोई आपत्ति नहीं है। पर यहाँ का देव बड़ा दुष्ट है। वह रात्रि को किसी को भी जिन्दा नहीं छोड़ता। हमारे गाँव में वर्षों पहले एक व्यापारी का बैल अतिबोझ के कारण मर गया था, वह यक्ष बनकर गाँव के लोगों को सताने लगा। हम लोगों ने इसकी प्रसन्नता के लिए इस मन्दिर का निर्माण उसी स्थान पर किया जहाँ यह बैल मरा था। इसी कारण वह मनुष्य के नाम से घृणा करता है। जो भी मानव यहाँ निवास करता है, सुबह मरा हुआ मिलता है।" “आप सुकुमार हैं। किसी अच्छे घर के लगते हैं। आप कहो तो हम आपको अपने गाँव में ठहरने की सुन्दर व्यवस्था करा सकते हैं।" पर प्रभु महावीर तो यक्ष शूलपाणि का उपसर्ग सहने और उसका उद्धार करने के लिए पधारे थे। प्रभु ने पुनः याचना की तो ग्रामवासियों ने मजबूरी में आज्ञा दे दी। इन्द्र शर्मा पुजारी आरती करके घर को चला गया। अकेले मन्दिर में प्रभु महावीर विराजित थे। अब रात्रि शुरू हुई। जंगल का भंयकर सन्नाटा, दूर-दूर तक मानव जाति का निशान नहीं था। काला धुआँ मन्दिर के चारों ओर से उठ रहा था। धुआँ गहरा होता गया। उस गहरे धुएँ में यक्ष की आकृति दिखाई देने लगी। बिजली की तरह चमकता भयंकर शूल उसके हाथों में था। वह तो रौद्र रूप में साक्षात् यमराज लग रहा था। भगवान के सामने आया और धमकी भरे स्वर में कहने लगा-“हे मृत्यु को चाहने वाले, तूने इन ग्रामवासियों का कहा नहीं माना, लगता है तू मेरी शक्ति से अपरिचित है।' फिर भयंकर अट्टहास हुआ। यक्ष पुनः धमकी भरे स्वर में बोला-"तू सुन्दर है। सुकुमार है। अँधेरे में तेरा शरीर बिजली की तरह चमक रहा है। फिर तू क्या यहाँ मरने को आया है ? ठीक है कई दिनों से मानव-माँस नहीं मिला। आज तुझे खाकर तृप्त होऊँगा।" यक्ष अपनी क्रूरता पर उतर आया। इतने भयंकर अट्टहास के मध्य प्रभु मौन, ध्यानस्थ मुद्रा में खड़े रहे। यक्ष को कुछ हैरानी हुई–'लोग तो मेरे अट्टहास मात्र से भाग जाते हैं। यह व्यक्ति किस मिट्टी का बना है जो मेरे से डरता नहीं है।' यक्ष ने पूरी शक्ति लगाकर रौद्र रूप धारण किया। उसने हाथी का रूप बनाया। दाँतों के प्रहार से, पाँवों से प्रभु को रौंदने लगा। फिर पिशाच का रूप बनाया। नाखून व दाँतों से प्रभु महावीर के अंगों को नोंचने लगा। प्रभु ध्यानस्थ रहे। पुनः उसने साँप का रूप बनाकर प्रभु को काटा पर समाधि भंग नहीं हुई। अन्त में उसने दिव्य देव-शक्ति से प्रभु के आँख, कान, नाक, सिर, दाँत, नख और पीठ में भयंकर वेदना उत्पन्न की। प्रभु निर्भय रहे। वह शान्त भाव से सब कष्ट सहते रहे। मेरु की भाँति अकम्पित रहे। यक्ष प्रभु को कष्ट देने के लिए सारी रात्रि प्रयत्न करता रहा। अन्त में उसका अभिमान चूर हो गया। राक्षसी-बल के सामने आत्म-बल की जीत हुई। प्रभु की इस सहन-शक्ति का देवता पर असर पड़ा। उसने सिर झुकाकर क्षमा माँगी “प्रभु ! मुझे क्षमा करो। मेरे से घोर अपराध हुआ है। मैंने आपकी शक्ति को नहीं पहचाना।' सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र ६५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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