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भगवान काफी समय जंगलों में साधना करते रहे। आखिर वर्षावास का समय आया । प्रभु तापसों के आश्रम में पहुँचे। कुलपति ने उनका स्वागत किया। उनके रहने के लिए झोंपड़ी का निर्माण करवा दिया। उसी कुटिया में वह ध्यान - मुद्रा में स्थित हुए।
उस वर्ष वर्षा न हुई । भूमि सूखी थी । जल के अभाव से वनस्पति पैदा न हुई । पशु भूखे मरने लगे। गाँवों के पशु जंगल में आ जाते। अपनी भूख-प्यास मिटाने की कोशिश करते । भयंकर सूखा था। पशुओं को कहाँ ज्ञान था ?
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वे घूमकर तापसों के आश्रम में आने लगे। वहाँ घास-फूस की झोंपड़ियाँ थीं। वे उन्हें खाने की चेष्टा करते ।
आश्रम के तापस उन्हें डण्डे लेकर भगाने की चेष्टा में रहते। पर जब पशु भगवान महावीर की झोंपड़ी में आते, प्रभु कुछ भी प्रतिकार न करते । पशुओं के लिए उनके मन में करुणा जो थी ।
एक दिन पशु महावीर की सारी कुटिया खा गये। प्रभु तो विदेह थे । ध्यानमग्न थे । दीक्षा लेते समय जो शरीर पर सुगन्धित, गौशीर्ष, चन्दन आदि लगाया गया था और जिसके कारण कितने कीट, पतंग, डांस, मच्छर आदि जहरीले जीव उनके कोमल शरीर पर दंश लगाते पर उन्होंने कभी इन जीवों की ओर ध्यान न दिया । २७ महावीर ने झोंपड़ी की परवाह न की । जिसे जन्म की परवाह नहीं थी, वह झोंपड़ी की कैसे करता ? इस घटना से तापस के शिष्य नाराज और क्रोधित हो गये। वे सब अपने गुरु से प्रभु की शिकायत करने गये ।
तापसों ने अपने गुरु से कहा - "तुम्हारा नया मेहमान कैसा आलसी है कि अपनी कुटिया की रक्षा तक नहीं कर सकता। दूसरों की कुटिया की रक्षा कैसे करेगा ? हमने बड़ी मेहनत से अतिथि सत्कार को ध्यान में रखकर उसकी झोपड़ी का निर्माण किया था। पर, इस साधक ने हमारी मेहनत को मिट्टी में मिला दिया है।"
दुइज्जत तापस पर अपने शिष्यों द्वारा की गई शिकायत का गहरा असर पड़ा। वह भी अपने शिष्यों की तरह उदासीन और अप्रसन्न हो गया । वह महाश्रमण प्रभु महावीर के पास आया और कहने लगा
"हे
'कुमार ! पक्षीगण भी अपने घोंसलों की रक्षा करते हैं। पर तुम राजकुमार होकर भी अपनी कुटिया की रक्षा नहीं कर सकते ? दुष्टों को दण्ड देना आपका कर्त्तव्य है, फिर कर्त्तव्य से विमुख क्यों होते हो ? २८
ये बातें कहकर कुलपति तापस चला गया। प्रभु के अन्तर्मन पर इन बातों का गहरा असर हुआ। उन्होंने इन बातों का उत्तर नहीं दिया।
उन्होंने सोचा- 'मैंने राजमहल छोड़े। फिर झोंपड़ी के मोह में क्यों फँसूँ ? मेरे लिए कहीं यह झोंपड़ी ममता और अहंकार का कारण न बन जाये, कहीं मैं अपने मूल लक्ष्य से भटक न जाऊँ । साधना ही तो करनी है। वह किसी भी जगह पर की जा सकती है।'
वह गहन चिन्तन में उतरे - 'मैं झोंपड़ी की रक्षा नहीं कर सकता और झोंपड़ी पर भूखे पशु मुँह मारते हैं, जिस कारण तापस वर्ग नाराज होता है। मेरी समाधि उनकी असमाधि बन जाती है। जो मेरे लिए अनुचित है।' यह सोचकर प्रभु ने महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया। उन्होंने ५ दिन बाद उस झोंपड़ी को अलविदा कहा । " २९
इस तरह चातुर्मास में वहाँ से प्रभु विहार कर अस्थिकग्राम पधारे। दुइज्जत के आश्रम से निकलते ही प्रभु ने पाँच प्रतिज्ञाएँ धारण कीं -
(१) अप्रीतिकर स्थान पर नहीं रहूँगा ।
(२) सदा ध्यानस्थ रहूँगा ।
(३) मौन रखूँगा ।
(४) हाथ में भोजन करूँगा ।
(५) गृहस्थों की विनय ( खुशामद ) नहीं करूँगा ।
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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