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आत्म-सिद्धि या मुक्ति किसी के बल प
स्वावलम्बी प्रभु महावीर
इस घटना का देवराज इन्द्र पर गहरा प्रभाव पड़ा। उसने प्रभु से निवेदन किया- "भगवन् ! वर्तमान कालिक जनता मूर्ख व अज्ञानी है। आपको अभी साढ़े बारह वर्ष तक तप करना है। कई मिथ्यात्वी देव आपकी साधना में रुकावट बन सकते हैं। जंगली पशु आपको कष्ट पहुँचा सकते हैं। मनुष्य आपके रास्ते में मुसीबतें खड़ी कर सकते हैं। इसलिए आप आज्ञा प्रदान करें, ताकि आपके साधनाकाल तक मैं आपकी सेवा में रहकर आपके कष्ट दूर कर सकूँ।"२० __महावीर तो महावीर थे। उन्हें पता था कि कोई भी किसी का कष्ट दूर करने में सक्षम नहीं। अपने-अपने कर्मों का व्यक्ति को फल भोगना पड़ता है। कौन, किसको कष्ट देता है। दुःख-सुख, नरक-स्वर्ग निर्माण का कारण स्वयं जीवात्मा और उन्हें भोगने वाला भी वह स्वयं है।
इन्द्र की अज्ञानता पर प्रभु मुस्कराये। फिर स्वावलम्बी भाषा में कहने लगे-“देवेन्द्र ! आत्म-साधक-जीवन अरिहंतों के जीवन में यह न कभी हुआ है, न भविष्य में होगा, जो केवलज्ञान के मामले में किसी की सहायता ले। तथा
द्ध या मक्ति किसी के बल पर प्राप्त की जाये। साधक तो अपनी शक्ति से मोक्ष तक को प्राप्त होता है।"२१ __इस प्रकार प्रभु ने प्रथम दिवस में ही अपनी साधना बिना किसी देव-मनुष्य की सहायता से शुरू की थी। वह मनुष्य को, साधना के क्षेत्र में अपना उदाहरण प्रस्तुत कर, आत्म-निर्भर बनाना चाहते थे। वह तो आत्म-साधना के मामले में ईश्वर की गुलामी को भी स्वीकार नहीं करते थे। सिद्ध या ईश्वर उनके लिए आदर्श थे। वह जानते थे कि आत्मा-परमात्मा में कर्म का भेद होता है। जब कर्म की लकीर मिट जाती है तो आत्मा अपने सिद्ध-परमात्मा स्वरूप को प्राप्त करती है। यह मुक्तात्मा ही परमात्मा है।
प्रभु की वाणी सुनकर देवेन्द्र नतमस्तक हो गये। वह धन्य-धन्य कहते हुए अपने स्वर्ग में चले गये।
देवेन्द्र सोचने लगे-'सत्य है आत्म-साधक संकटों से घिरने पर भी दूसरों की सहायता की अपेक्षा नहीं रखता। क्या विराट् काय हाथियों से घिर जाने पर सिंह कभी दूसरों के सहयोग की ओर ताकता है,२२ सत्य है प्रभु महावीर हजारों सिंहों के बल के धनी धर्म-चक्रवर्ती थे।२३
दूसरे दिन प्रभु कोल्लाग सन्निवेश पधारे। वहाँ बहुल नाम के ब्राह्मण थे। घी और शक्कर से मिश्रित परमान्न (खीर) से प्रभु ने पारणा किया। ____ उत्तरपुराण में लिखा है-“प्रभु महावीर विद्याधरों के नगर कुलग्राम पधारे। वहाँ राजा कुल ने उन्हें भिक्षा में खीर दी और भक्तिभाव से सम्मान किया।"२४ तापसों के आश्रम की घटना ___ भगवान महावीर आगे चले। वह वहाँ से चलकर कोल्लाग सन्निवेश में पधारे। वहाँ पर दुइज्जंत तापस का विशाल आश्रम था। यह तापस प्रभु के पिता सिद्धार्थ का पुराना मित्र था।२५ ___ प्रभु को आते देखकर उसने प्रभु का खूब सन्मान किया। भगवान ने भी पूर्व के अभ्यासवश उनसे मिलने दोनों बाहें पसारी।२६ __ प्रभु वहाँ एक दिन विराजे। अगले दिन प्रभु ने वहाँ से भी प्रस्थान किया।
जाने के समय आश्रम के तापसों ने प्रभु से कहा-“यह आश्रम आपका है। जब चाहो, यहाँ आकर रहो। आप वर्षावास का समय यहाँ गुजारना चाहें, तो अच्छा रहेगा।" ___ भगवान ने बात सुनी, पर कोई उत्तर न दिया। वह सिंह की तरह अभय विचरण करने वाले थे। उनकी दृष्टि में आश्रम व महल दोनों त्याज्य थे।
सचित्र भगवान महावीर जीन चरित्र
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