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________________ बाकी का भाग ब्राह्मण ने उठाकर रफूगर को दिया। रफूगर ने उसे जोड़ दिया। वह वस्त्र लेकर राजा नन्दीवर्द्धन के पास गया। नन्दीवर्द्धन ने देवदूष्य को पहचान लिया। अपने त्यागी भाई की निशानी के रूप में उस वस्त्र को उसने एक लाख स्वर्ण-मुद्राओं में ब्राह्मण से खरीदा। ब्राह्मण का दारिद्रय जीवनभर के लिए दूर हो गया। यह घटना प्रभु के त्याग व अनासक्ति का जीवंत प्रमाण है। प्रभु के वस्त्रदान से उनकी करुणा झलकती है। भगवान महावीर ने करुणा को अहिंसा की माँ बताया है। राजकुमार वर्द्धमान अब श्रमण बन गये थे। प्रव्रजित होते ही उन्होंने संयम की कठोर साधना की। जीवनभर वे अनासक्त रहे। भगवान महावीर का जीवन हर प्रकार से आदर्श था। वे कहने से पहले हर काम स्वयं करते थे। उन्होंने अपने शरीर को प्रयोगशाला बना रखा था। साधनाकाल में यह उनका प्रथम दान था। अब प्रभु वस्त्रविहीन दशा में विहार करने लगे। ठीक भी है जब शरीर का मोह नहीं रहा, तो वस्त्र की चिन्ता कौन करे। उन्हें तो अपने सभी कर्म खपाने थे। उनकी जीवन-यात्रा इस ओर अग्रसर थी। सहनशील प्रभु महावीर वह कूर्मारग्राम पधारे। पक्षी अपने घोंसले से बाहर आ चुके थे। सुबह हो रही थी। प्रभु के मन में आध्यात्मिक जागरण का सनहरा प्रभात प्रस्फटित हो रहा था। वह गाँव के बाहर जंगल में एक वृक्ष के नीचे नासिका के अग्र भाग पर दृष्टि केन्द्रित कर स्थाणु की तरह ध्यान में स्थिर हो गये।१६ उसी समय एक ग्वाला अपने बैलों के साथ आया। उस समय गोदोहन का समय था। उस ग्वाले को समझ में नहीं आ रहा था कि वह अपने बैलों को किसके सुपुर्द करे? उसने पास में बैठे प्रभु महावीर को देखा। फिर सरल भाव से कहा-"मेरे बैलों का ध्यान रखना। मैं गायें दहकर शीघ्र आता है।"१७ प्रभ समाधि में लीन थे। उन्होंने ग्वाले की बात की ओर कोई ध्यान न दिया। बैल सारे दिन जंगल में मस्ती देया। बैल सारे दिन जंगल में मस्ती से आजाद घूमते रहे। फिर बैल क्षुधा व प्यास मिटाने दूर निकल गये। ग्वाला लौटा। उसने देखा, बैल नहीं थे। उसने समाधिस्थ महावीर से पूछा- 'मेरे बैल कहाँ हैं ?'' प्रभु की ओर से कोई उत्तर न पाकर, वह बैलों की तलाश में निकल पड़ा। कुछ समय के पश्चात् बैल खा-पीकर अपने पुराने स्थान पर आ गये। इधर दिनभर ग्वाला बैलों की तलाश में थका-माँदा, भटकता हुआ प्रभु महावीर के पास पहुँचा। वहाँ बैलों को देखकर वह क्रोधित हो गया। उसके मन में ख्याल आया-'जरूर इस तथाकथित साधु ने मेरे बैल छिपा रखे हैं। मुझे इसे सजा जरूर देनी चाहिए।' ग्वाला प्रभु को बैलों को बाँधने वाली रस्सी से मारने को दौड़ा।१८ उसी समय इन्द्र का सिंहासन कम्पायमान हुआ। वह प्रभु की सेवा में उपस्थित हुआ। ग्वाले को ललकारते हुए कहा"मूर्ख ! जिसे तू चोर समझता है। वह चोर नहीं है, ये तो राजा सिद्धार्थ के तेजस्वी पुत्र वर्धमान हैं। राजवैभव को लात मारकर ये आत्म-साधना के लिए निकले हैं। ये तेरे बैलों की क्या चोरी करेंगे? मूर्ख ! तूं प्रभु पर व्यर्थ प्रहार कर रहा था।"१९ ___ग्वाला इन्द्र की बात सुन थरथर काँपने लगा। वह प्रभु की महानता को समझ चुका था। उसने गिड़गिड़ाकर प्रभु के चरण पकड़ लिये। वह क्षमा माँगने लगा। फिर प्रभु की वन्दना करके चल दिया। ६२ सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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