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________________ साधनाकाल प्रथम वर्ष प्रभु महावीर का साधनाकाल बहुत सी घटनाओं से परिपूर्ण है। उनकी साधना कितनी उत्कृष्ट थी, इसका अनुमान जैन आचार्यों के इस कथन से लग जाता है भगवान महावीर की तप साधना एक और और तेईस तीर्थंकरों की तपः साधना एक ओर । भगवान महावीर का साधनाकाल अत्यन्त कठोर घोर परीषहों से युक्त था । उस जीवन में उन्हें जो दैविक, पाशविक एवं मानविक उपसर्ग, कष्ट एवं परीषह उपस्थित हुए; उसमें उनके अंतःकरण की करुणा, कोमलता, कठोर तितिक्षा, दृढ़ मनोबल और अविचल समाधि के जो दर्शन हमें होते हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ हैं। भगवान महावीर ने दीक्षा लेते ही कूर्मारग्राम की ओर प्रस्थान किया । इसी समय उन्होंने संसार के सामने दान का वह उदाहरण प्रस्तुत किया, जो संसार के इतिहास में अन्यत्र देखने सुनने को प्राप्त नहीं होता। इस घटना का वर्णन आवश्यकचूर्णि, १ हारिभद्रीया वृत्ति, २ मलयगिरि वृत्ति, ३ चउपन्न महापुरुष चरियं,४ महावीर चरियं, ५ त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र और कल्पसूत्र " की टीकाओं में उपलब्ध होता है। दीक्षा लेकर प्रभु ने ज्ञातृखण्ड वन से विहार किया। जन-जन के नायक को लोग उस समय तक निहारते रहे, जब तक वह आँखों से ओझल न हो गये। ओझल होते ही प्रजा की आँखों से आँसुओं की बरसात उमड़ पड़ी। प्रभु तो अब अकिंचन भिक्षु बन चुके थे। उनके कंधे पर इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदूष्य के अतिरिक्त कुछ नहीं था । वे आगे बढ़ रहे थे। उन्हें रास्ते में ही सोमशर्मा नाम का वृद्ध ब्राह्मण मिला । यह ब्राह्मण राजा सिद्धार्थ' का मित्र था । " वह महावीर के सामने आया। उसने कहा - "9 "भगवन् ! मैं दीन और दरिद्र हूँ । न खाने को अन्न है, न पहनने को वस्त्र हैं और न रहने को झोंपड़ी है। भगवन् ! जिस समय आप वर्षीदान दे रहे थे उस समय मैं भूख से बिलखते परिवार को छोड़कर धन की आशा में परदेश गया हुआ था । १० मुझ अभागे को क्या पता था कि यहाँ धन की वर्षा हो चुकी है। मैं घर खाली हाथ लौटा। आते ही पत्नी ने मेरे भाग्य को फटकारते हुए कहा कि यहाँ सोने का मेघ उमड़-घुमड़कर बरस रहा था, उस समय तुम कहाँ भटकते रहे ? अब भी शीघ्र जाओ और प्रभु महावीर से याचना करो, वह दीनबन्धु तुम्हें अवश्य निहाल करेंगे ।११ "हे राजकुमार ! इस दरिद्र ब्राह्मण को कुछ तो दीजिये । कल्पवृक्ष के नीचे आकर कौन खाली जाता है? आप तो मेरी स्थिति को जानते हैं ।" प्रभु ने गरीब ब्राह्मण की कथा सुनी। फिर करुणा भरे स्वर में बोले-“आर्य ! इस समय मैं अकिंचन भिक्षु हूँ ।" १२ ब्राह्मण ने प्रभु के स्कन्ध पर पड़े देवदूष्य वस्त्र की ओर देखा फिर उसने अपने मन की बात कह डाली - "प्रभु ! आपके दर से मैं खाली कैसे जाऊँ ? देना चाहो तो अभी भी बहुत कुछ है ।" ने ब्राह्मण का इशारा समझ लिया। उन्होंने उस वस्त्र में से आधा वस्त्र फाड़कर ब्राह्मण को दे दिया । १३ प्रभु ब्राह्मण प्रसन्न हुआ, उसे लगा कि उसका भाग्य चमक गया है। ब्राह्मण घर आया । देवदूष्य का आधा भाग उसने ब्राह्मणी को दिया। उसके एक किनारे को ठीक करने के लिए यह वस्त्र उसने रफूगर को दिया । रफूगर उस अमूल्य वस्त्र को देखकर कहने लगा-"यह तो बहुमूल्य देवदूष्य है। यदि पूरा वस्त्र मिल जाये तो लाख स्वर्ण मुद्राएँ मिल सकती हैं ।"१४ रफूगर की बात ब्राह्मण को जँच गई। वह भगवान महावीर के पीछे-पीछे चलने लगा। एक वर्ष और एक मास के पश्चात् वह आधा वस्त्र कंधे से गिर पड़ा। १५ Jain Educationa International सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र For Personal and Private Use Only ६१ www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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