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________________ भाषान्तर सहित. ३२१ कही वली वांद्या. समकीत पाम्यो पढी त्यांथी श्री वीर परमात्मापासेज‍ तेमने वांदी दृढ समकीती थयो. अनाश्री मुनी कर्म खपावी मुक्ते गया. शरण जावनाए नीकलवाथी नाथी मुनी अक्षय सुख पाम्या. माटे अशरण जावना जावी धर्मनुं शरण कर, के जेथी कर्म दय थतां शीव सुख मले बे ॥ १३ ॥ ॥ अथ तृतीय संसार जावना विषे ॥ शार्दुलविक्री मित बंद ॥ ॥ तिर्यंचादि निगोद नार किती, जे योनि योनी रह्यां ॥ ॥ जीवे दुःख अनेक दुर्गतितयां, कर्म प्रजावे लह्यां ॥ || ज्यां संयोग वियोग रोग बहुधा, ज्यां जन्म जन्मे खी ॥ ते संसार प्रसार जाणी एढवो, जे ए तजे सो सुखी ॥ १४॥ जावार्थ:- कर्मना प्रजाव थकी श्र जीवे दुःख परंपरा - नंत काल सुधी जोगव्यां, तिर्यंच थयो, नारकी थयो, निगोदमां गयो, वली जे जे योनीमां गयो त्यां त्यां अनेक प्रकारनां 5गतिना कर्म विलासथी, संयोगथी ने वियोगथी बहुधा कहेतां घणीवार दुःख जोगव्यां, एवं जाणीने जेणे ए संसार स्वरूपनं लखाण करी संसारने असार जाणी तज्यो ने धर्म कर्यो ते सुखी था. अर्थात् योनी योनीने विषे अनंत काल सुधी कर्मना प्रजावे करीघणां दुःख जोगव्यां एवा था संसारने असार जाणी जे प्राणी तजशे अने धर्मनुं शरण करशे ते सुखी थशे. ॥१४॥ इंद्रवजाबंद ) जे दीन ते उत्तम जाति जाए, जे उच्च ते मध्यम जाति थाए ॥ ज्यू मोक्षमेतार्य मुनीं जाए, त्युं मंगु सरी पुरयक्ष थाए ॥ १५ ॥ जावार्थ:- जे हीन जाति होय ते मरीने रह्यां " ने ठेकाणे " सह्यां " बीजी प्रतमां या " शब्दो बे ४१ वेकाणे “ * 66 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only उत्तम जातिमां " + ने "" ज्यां ने www.jainelibrary.org
SR No.003685
Book TitleSuktavali yane Suktmuktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1911
Total Pages368
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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