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सूक्तमुक्तावली
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८ कुलनो संबंध; ए विवेकनो संबंध; १० विनयनो गुण; ११ विद्यानो उपकार; १२ उद्यम; १३ दान; १४ क्रोध; १५ दया; १६ संतोष १७ विषय बांगवा; १० प्रमाद बांगवा; १७ तथा वली साधु ने श्रावकना वर्गने प्रसंगथी जाणवा. ए प्रकारे या ग्रंrai गणीस अधिकारनुं विस्तारपूर्वक स्वरूप कहेवामां श्रावशे. ॥ अथ धर्मवर्ग प्रारंभः ॥
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॥ देवतत्त्व विषे ॥ मालिनी बंदः ॥ सकल करमवारी मोक्षमार्गाधिकारी | त्रिभुवन पगारी केवलज्ञानधारी ॥ जविजन नित सेवो देव ए नक्तिजावे ॥ इदि जिन जंतां सर्व संपत्ति यावे ॥ ३ ॥
अर्थ :- अरिहंत प्रभु ष्ट कर्मनो अंत करवे करीने मोक्षमार्गना अधिकारी बे, त्रिभुवनने उपकारना करणहार केवलज्ञाननाधरणहार बे, एवा प्रजुने हे नव्य जीवो ! तमे नित्य क्तिवे करीने सेवो, एवा जिनेश्वरने जजंतां एटले ए जिनेश्वर जगवाननी सेवना-स्तवनादि करवाथी प्राणी सर्व संपत्ति पामे, अर्थात् आलोकने विषे पुत्रपौत्रादि धनधान्यादि नव निधि पाने परलोकने विषे देवपएं तथा मोक्ष पामे. ३ जीनवरपदसेवा सर्वसंपत्तिदाई ॥ निशिदिन सुखदाई कल्पवल्ली सदाई ॥ नमि विनमि लहीजे सर्व विद्या वडाई ॥ रुषन जिनद सेवा साधतां तेढ़ पाई ॥ ४ ॥
अर्थ :- जिनेश्वर जगवानना चरणकमलनी सेवा सर्व संपत्ति एटले सघली संपदाने श्रापवावाली बे, जेम कल्पवेल रात्रे ने दिवसे वधे बे तेम तीर्थंकर प्रजुनी सेवा थकी थालोक तेमज परलोकने विषे सर्व प्रकारनी सुख संपदा पामीये. जेवी रीते श्रीरु.
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