SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १. महातस्व 'हृदय' शब्द यद्यपि आ-बाल-गोपाल प्रसिद्ध है, परन्तु क्योंकि शास्त्रमें इसका कथन प्रायः नगण्य तुल्य है, इसलिये बहुत सम्भव है कि इसे सुनकर आप असमंजसमें पड़ जायें, परन्तु घरायें नहीं, तनिक सुनें और निर्णय करें । जो वस्तु तुम्हारे नित्य अनुभवमें भा रही है, बच्चे बच्चेके अनुभवमें आ रही है, 'उससे केवल इसलिये इन्कार कर देना कि उसका उल्लेख शास्त्रमें नहीं है, यह कोई न्याय नहीं है । भले ही इस शब्दके द्वारा वहां इस -तत्त्वका उल्लेख उपलब्ध नहीं है, परन्तु 'भाव' शब्दके द्वारा अवश्य उपलब्ध है । अत: आओ और धैर्यपूर्वक इसका अध्ययन करो । इस शरीर के भीतर हृदय - नामका एक यन्त्र माना गया है । 'जिसका काम रक्तका शोधन करके धौंकनीकी भांति उसे नस-नस में पहुँचाना है । परन्तु जिस प्रकार तात्त्विक क्षेत्रमें मन बुद्धि आदि शरीर के भीतर स्थित अंगों या यन्त्रों के नाम न होकर किन्हीं आभ्यन्तर तत्त्वोंके नाम हैं, इसी प्रकार मेरे द्वारा उल्लिखित हृदय भी वह यन्त्र न होकर एक आभ्यन्तर तत्र है, जिसका ग्रहण केवल Jain Education International ४७ ८-हवय - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy