________________
४६
१- अध्यात्म खण्ड
अहंकार भूमिका अतिक्रम है। ऐसा होनेपर जिस प्रकार समग्रका ग्रहण स्वयं हो जाता है, उसी प्रकार पूर्णाहंताका संवेदन भी साथसाथ स्वयं हो जाता है । इसके स्थानपर 'मैं सिद्धों के समान निराकार आत्माका दर्शन कर रहा हूं', इत्याकारक काल्पनिक आत्मदर्शनको स्वसंवेदन मान लेना भ्रान्ति है । 'अहमिदं जानामि' के रूपमें बाहर तथा भीतर जो कुछ भी दृष्ट है वह सब अनात्मा है, 'अहं' से विपरीत है । 'इदं' के रूपमें गृहीत आत्माको अहं या अहंका अनुभव मानना भ्रान्ति है ।
जैसा कि आगे बताया जानेवाला है, प्रेम, विनय, भक्ति, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, वैराग्य, समता आदि रूप भाव-लोक ही हृदय नामक अष्टम-भूमिका स्वरूप है । जिस प्रकार का प्रेम माता अपने बच्चे के साथकर सकती है वैसा किसी दूसरे बच्चे के साथ नहीं कर सकती । यदि करती है तो वह केवल उसका अभिनय होता है प्रेम नहीं । इसी प्रकार केवल मस्तक झुका देनेको विनय मान लेना, भगवान्की द्रव्यपूजा करके भक्ति मान लेना, हाथ पाँव दबाकर वैयावृत्य मान लेना, किसी दुःखीको दो पैसे देकर करुणा मान लेना भ्रान्ति है । ये सब प्रेम, विनय, भक्ति आदिके अभिनय हैं, प्रेम विनय भक्ति आदि नहीं । हृदयसे उद्गत होनेपर ही वे सत्य हैं । हृदय-विहीन अभिनयको प्रेम भक्ति आदि मानना भ्रान्ति हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org