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________________ ३१- पंच लन्धि १९१ करके भी प्रायः सभी इन भ्रान्तियोंमें अटक जाते हैं। कोई तत्त्वदृष्टिकी उपेक्षा करके केवल बाह्याचारमें अटक जाते हैं, और कोई तत्त्वदृष्टिकी महिमाका गान करते-करते • बाह्याचारको अथवा आचार शास्त्रको भूल जाते हैं। हे प्रभो ! जीवनोन्नतिके पथमें दोनोंका ही समान महत्त्व है, किसीका होन और किसीका अधिक नहीं है। यद्यपि समझने तथा समझानेके लिये हम इनमें से किसी एकपर अधिक बल देकर दूसरेको गौण कर सकते हैं, परन्तु जिसप्रकार कि कारखानेकी मशीनोंमें गरारी तथा उसमें लगी हुई छोटीसी पिन इन दोनोंका समान स्थान है. इसी प्रकार जीवनशालाके तात्त्विक विधानमें तत्त्वदृष्टि तथा आचरण दोनोंका समान स्थान है। यद्यपि तत्त्वदृष्टि जाग्रत होनेके पश्चात् दोनों परस्पर सापेक्ष होकर एक दूसरेके सहयोगी हो जाते हैं, तदपि तत्त्वदृष्टि जाग्रत होनेसे पहले मुमुक्षुके लिये पुण्य ही एक मात्र अवलम्बन है, जिसके बिना तत्त्वदृष्टि जाग्रत होना सम्भव नहीं। सम्यग्दर्शनके कारणोंमें जिन-बिम्ब-दर्शन, धर्म-श्रवण, जिनमहिमा-दर्शन, देवद्धिदर्शन आदि जिन बातोंका उल्लेख शास्त्रमें प्राप्त होता है वे तो सब पुण्य हैं ही, उनके अतिरिक्त शास्त्राध्ययन, तत्त्वचर्चा, तत्त्व-चिन्तन, मनन, उपदेश आदि जो कुछ भी है वह सब पुण्य है। तिसपर भी पंचलब्धिमें निबद्ध पुण्य विशिष्ट प्रकारका है, क्योंकि इन सबकी भांति वह सम्यग्दर्शनका परम्परा हेतु न होकर साक्षात् हेतु है। इसलिये सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके लिये पुण्यका अवलम्बन लेना न्याय्य है। पंचलब्धिके प्रकरणमें निबद्ध विषय अत्यन्त वैज्ञानिक है और तनिक सी सूक्ष्म दृष्टि करनेपर अपने भीतर प्रत्यक्ष किया जा सकता है। व्यक्तिको अनेकों उपलब्धियां नित्य होती हैं, जिनमें अनेकों भौतिक होती हैं और अनेकों आध्यात्मिक । परन्तु बहिर्मुख होनेके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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