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________________ १९२ २-कर्म खण्ड कारण जीवनोन्नतिके क्षेत्रमें उनका कोई मूल्य नहीं है। पंचलब्धिके प्रकरणमें चेतनाकी अन्तर्मुखी उन पांच उपलब्धियोंका विवेचन किया गया है जो कि उसकी दृष्टिको बाहरसे हटा कर धीरे-धीरे अन्तरंगकी ओर ले जाती हैं। शरीर इन्द्रिय मन बुद्धिसे हटाकर हृदयकी ओर ले जाती है। तर्क-लोकसे हटाकर भाव. लोककी ओर ले जाती है। ये वास्तवमें मुमुक्षु के पांच आद्य सोपान हैं जिनके द्वारा उत्तरोत्तर उन्नत होती हुई उसकी दृष्टि तत्त्वालोकमें प्रवेश पानेके लिये समर्थ हो जाती है। इसीलिये इसके पुण्यको विशिष्ट कहा गया है। क्रमोन्नत इन पांच उपलब्धियोंके नाम हैं--- क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना-लब्धि, प्रायोग्य-लब्धि और करण-लब्धि। २. क्षयोपशम लब्धि समझने तथा समझानेकी शक्ति प्राप्त हो जाना 'क्षयोपशमलब्धि' कहलाती है। यद्यपि कीट पतंग आदि क्षुद्र योनियोंको छोड़कर शेष सभी प्रकारके जीवोंको समझने तथा समझानेकी सामान्य शक्ति प्राप्त है, तदपि उसका प्रयोग ऐन्द्रिय विषयोंके प्रति होनेसे यहां उसे लब्धि नहीं कहा जाता। गुरुजनोंके द्वारा दिये गये उपदेशको अथवा शास्त्रोल्लिखित अर्थको बुद्धिके द्वारा अवधारण कर लेना ही क्षयोपशम-लब्धि कही जाती है। समझने तथा समझानेकी सामान्य शक्ति वाले सभी जीव अपनी इस योग्यताका प्रयोग इस दिशामें कर सकते हैं, तदपि सभी प्रायः अपनी इस मूल्यवान उपलब्धिको लौकिक विषयोंके समझने समझानेमें नष्ट कर देते हैं। पूर्वोपार्जित किसी पुण्यके उदयसे जिन्हें कदाचित् इसका सदुपयोग करनेकी बुद्धि जाग्रत हो जाती है, वे अपनी इस उपलब्धिसे लाभान्वित होनेके लिये शास्त्राध्ययनमें, पठन-पाठनमें, मनन Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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