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________________ ३०-स्वातन्त्र्य १८९ भी । सकाम होनेपर ये पापानुबन्धी हैं और निष्काम होनेपर पुण्यानुबन्धी । संसार- हानिका हेतु होनेसे निष्काम पुण्यको परम्परा रूपसे मोक्षका हेतु कहा गया है, सकाम पुण्यको नहीं । इसलिये हे कल्याणकामी ! तू पुण्य कर्मका त्याग मत कर, इससे उत्पन्न फलकी आकांक्षाका त्याग कर । काम व्यक्तिको नहीं चिपटता, कामना चिपटती है । यह कामना ही वह परिग्रह है जिसे पापका कारण कहा गया है । 'मूर्च्छा परिग्रहः' । इसका त्याग ही परम तप है । 'इच्छात्यागः तपः' । अतः पुण्य कर्म उपादेय है, इसके फलकी आकांक्षा हेय है । निष्काम पुण्यका अवलम्बन लेनेसे तू अवश्य एक दिन संस्कारोंकी आधीनताका उच्छेद करके स्वतन्त्र हो जायेगा । * तेरा है तेरे ही पास तुम खोज रहे हो आसपास * भगवान किसी स्थान पर नहीं वे प्रत्येक प्राणी के हृदय में निवास करते हैं। भावना भव नाशिनी भावना जन्म-मरण को नष्ट करती है, हृदय की कलुषता को दूर करती है और अमृत जीवन प्रदान करती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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