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२- कर्म खण्ड
निकट आता है । यही कारण है कि कषाय-युक्त कर्म को साम्परायिक और कषाय-विहीनको ईर्यापथ कहा गया है, फलाकांक्षासे युक्त सकाम कर्मको बन्धनकारी और फलाकांक्षासे निरपेक्ष निष्काम कर्मको अबन्ध कहा गया है । कषाय-विहीन अथवा फलाकांक्षासे निरपेक्ष कर्म ही वह लोकोत्तर पुण्य है, जिसके द्वारा बन्ध होता अवश्य है परन्तु केवल अनुभागका होता है स्थितिका नहीं । स्थिति ही संसार वासकी हेतु है, अनुभाग नहीं। स्थितिको नष्ट करते रहने के कारण ही पुण्य परम्परा रूपसे मोक्षका हेतु कहा जाता है । यद्यपि लौकिक पुण्यसे ही स्थितिका नाश होता अवश्य है, परन्तु वह इसकी अपेक्षा नगण्य तुल्य है । इसलिये कल्याणके पथमें उसको चर्चा नहीं की जाती ।
इस विषय में एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि चित्तकी स्थिति दो ही प्रकारकी होनी सम्भव है - सम या विषम । जब तक पूर्ण समता हस्तगत नहीं हो जाती तबतक विषमता रहनी स्वाभाविक है । यह बात ठीक है कि साधक ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ता है, समता बढ़ती जाती है और विषमता कम होती जाती है । परन्तु कितनी भी हीन क्यों न हो जाय, है तो विषमता ही । विषमता के सद्भावमें विषमता युक्त कर्म ही सम्भव है, समता युक्त नहीं | अधिक विषमता के सद्भावमें अधिक विषम और हीन विषमता के सद्भाव में हीन विषम ।
पापकर्म सकाम ही होता है, निष्काम नहीं, क्योंकि भोगाकांक्षा ही व्यक्तिको पापमें नियोजित करती है । पुण्यकर्म दो प्रकार का होता है सकाम और निष्काम । सकाम पुण्य लौकिक है और निष्काम पुण्य लोकोत्तर । देव-दर्शन, पूजा, कीर्तन, भजन, पाठ, गुरुसेवा, समाज-सेवा, भक्ति, स्वाध्याय, मनन, चिन्तन, संयम, त्याग, तप, ध्यान, समाधि सभी सकाम भी होते हैं और निष्काम
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