SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०-स्वातन्त्र्य १८७ पातालका अन्तर है । पाप सर्वथा बन्ध है और पुण्य कथंचित् बन्ध । इसका कारण यह है कि पापके द्वारा पाप तथा पुण्य दोनों की स्थितिका उत्कर्षण होता है जिससे संसारकी वृद्धि होती है, और पुण्यके द्वारा पाप तथा पुण्य दोनोंकी स्थितिका अपकर्षण होता है जिससे संसारकी हानि होती है | विवेक -युक्त अथवा पुण्यानुबन्धी पुण्य होनेपर यह अपकर्षण या संसार- हानि सामान्य पुण्यकी अपेक्षा कई गुणी अधिक होती है, इसलिये परमार्थ हितके पथमें वह पुण्य अत्यन्त उपादेय है । इस विषय में यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि इसके द्वारा पापकी स्थिति या आयुका तो नाश होता ही हैं, स्वयं अपनी भी आयुका नाश होता है । यह अपनी आयुका गला स्वयं घोटता है जब कि पाप सदा उसे परिपुष्ट करने में जुटा रहता है । दूसरी ओर वर्तमान समयवर्ती पुण्यके परिणामसे द्वितीय समयमें उदय आने योग्य पुण्यका अनुभाग बढ़ जाता है । इस द्वितीय समयवर्ती पुण्यके परिणामसे तृतीय समयमें उदय आने योग्य पुण्यका अनुभाग कई गुणा अधिक बढ़ जाता है । इस तृतीय समयवर्ती पुण्यके परिणामसे चतुर्थ समयमें उदय आने योग्य पुण्यका अनुभाग उसकी अपेक्षा भी असंख्यात गुणा अधिक बढ़ जाता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर समयोंके पुण्योदयसे सत्ता स्थित पुण्यका अनुभाग उत्तरोत्तर असंख्यात असंख्यात गुणा बढ़ता जाता है, और साथ-साथ उनकी आयु या स्थिति असंख्यात असंख्यात गुणी घटती जाती है । इसका फल द्विमुखी होता है— एक ओर तो परिणामोंकी विशुद्धिमें उत्तरोत्तर अधिक अधिक वृद्धि होती है और दूसरी ओर संसार वासकी अवधि में उत्तरोत्तर हानि होती है। परिणामोंकी वृद्धिगत विशुद्धिके द्वारा व्यक्ति अधिक अधिक समताकी ओर जाता है और संसार वासकी उत्तरोत्तर हानिसे उसका किनारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy