SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८६ २-कर्म खण्ड होता ही है, साथ-साथ कर्मों या संस्कारोंमें चार बातें और भी होती हैं-पुण्य तथा पाप दोनोंकी स्थितिका अपकर्षण, पापात्मक संस्कारोंके अनुभागका अपकर्षण, पुण्यात्मक संस्कारोंके अनुभागका उत्कर्षण, और पापात्मक संस्कारोंका पुण्यके रूप में संक्रमण । ऐसा हो जानेपर वर्तमान समयवर्ती पुण्यके उदयसे द्वितीय समयवर्ती पुण्यकी शक्ति और भी अधिक बढ़ जाती है। इस प्रकार अगलेअगले क्षणों में जो संस्कार उदय आते हैं वे अपने-अपने पूर्ववर्ती संस्कारोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर अधिक-अधिक शक्तिवाले होते हैं। फल-स्वरूप जीवके परिणाम उत्तरोत्तर विशुद्धसे विशुद्धतर और विशुद्धतरसे विशुद्धतम होते चले जाते हैं । बस यही है वह दिशाफेर जिसके कारण व्यक्ति बराबर अधिक-अधिक वेगके साथ ऊपर उठता जाता है। ३. पुण्यका सार्थक्य यहां यह प्रश्न हो सकता है कि पापकी भांति पुण्य भी बन्धन है, इसलिये उसकी उत्तरोत्तर वृद्धिसे व्यक्तिको स्वतन्त्रता कैसे मिल सकती है । प्रश्न उचित है, परन्तु आपने यहां पुण्यको केवल एक पक्षसे देखा है। इसके दूसरे पक्षको देखनेपर समाधान स्वयं हो जाता है। पुण्य दो प्रकार का होता है-पारमार्थिक हितके विवेकसे शून्य लौकिक पुण्य, तथा पारमार्थिक हितके विवेकसे युक्त पारमार्थिक पुण्य । पहला पापानुबन्धी कहलाता है, क्योंकि फलाकांक्षासे युक्त होनेके कारण उससे प्राप्त सुखोंमें व्यक्ति आसक्त होकर प्रायः न्याय अन्यायको भूल जाता है। दूसरा पुण्यानुवन्धी कहलाता है, क्योंकि फलाकांक्षासे निरपेक्ष तथा हिताहितके विवेकसे युक्त होनेके कारण वह भोगोंमें आसक्त नहीं होता है। दूसरी बात यह भी है कि भले ही बन्धकी अपेक्षा पाप तथा पुण्य दोनों बराबर हों, परन्तु सैद्धान्तिक दृष्टिसे दोनोंमें आकाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy