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________________ ३०-स्वातन्त्र्य १८५ उत्तरोत्तर अधिक-अधिक पतनकी ओर जाता रहता था । परन्तु इस अवसर का सदुपयोग कर लेनेपर खेल उल्टा हो जाता है | स्थितियें बढ़ने की बजाय अपकर्षण के द्वारा घटनी प्रारम्भ हो जाती हैं और पापात्मक संस्कार पुण्यात्मक के रूपमें संक्रमित होने लग जाते हैं। उत्तरोत्तर अधिक अधिक पुण्यात्मक बन बनकर उदयमें आनेके कारण जीव उत्तरोत्तर अधिक-अधिक ऊपरकी ओर उठता जाता है । जिस प्रकार एक घड़ा ओंधा रख देनेपर उसके ऊपर जितने भी घड़े टिकाये जाते हैं, वे सब ओंधे ही होते हैं, उसी प्रकार एक बार संस्कारके पापोन्मुख हो जानेपर, बन्ध, उदय, सत्त्व, अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण आदि जितने कुछ भी करण उसकी सोमामें होते हैं वे सब पापोन्मुख ही होते हैं । और जिस प्रकार एक घड़ा सीधा रख देनेपर उसके ऊपर जितने भी घड़े टिकाये जाते हैं वे सब सीधे ही होते हैं, उसी प्रकार एक बार संस्कारके पुण्योन्मुख हो जानेपर बन्ध, उदय, सत्त्व, अपकर्षण, उत्कर्षण आदि जितने कुछ भी करण उसकी सोमामें होते हैं वे सब पुण्यात्मक ही होते हैं । इतना ही नहीं उसकी गतिमें भी उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है, जिसे विज्ञानकी भाषा में acceleration कहते हैं। जिस प्रकार एक बार पांव फिसल जाने पर व्यक्ति उत्तरोत्तर अधिक-अधिक तेज़ोके साथ नीचेकी ओर जाता है, उसी प्रकार एक बार पापात्मकसस्कारकी अधीनता प्राप्त हो जानेपर व्यक्ति उत्तरोत्तर अधिकअधिक तेज़ी के साथ पापकी ओर जाता है। इसी प्रकार एक बार पुण्यात्मक-संस्कारको अधीनता प्राप्त हो जानेपर व्यक्ति उत्तरोत्तर अधिक-अधिक तेज़ीके साथ पुण्यकी ओर जाता है । पुण्यका उदय होनेपर यदि व्यक्ति उसका विवेक- पूर्वक सदुपयोग करे तो उसके पुण्यात्मक परिणामके कारण नवीन पुण्यका बन्ध तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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