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________________ १८४ २-कर्म खण्ड नहीं झुकते और कामना रूपो बन्धनमें जकड़े हुए सदा भ्रमण करते रहते हैं। गुरु-कृपासे यदि कदाचित् कोई हितकी ओर झुकता भी है और उसके आदेशानुसार धार्मिक क्रियाओंमें प्रवृत्त होता भी है तो फलाकांक्षाका त्याग न कर पानेके कारण वह भी शुभ-अशुभके अथवा पुण्य-पापके द्वन्द्वका उल्लंघन करके समताको उस भूमिमें प्रवेश पानेके लिये समर्थ नहीं होता, जहां पदार्पण किये बिना व्यक्तिको पारमार्थिक स्वतन्त्रता मिलनी सम्भव नहीं हैं। तथापि यदि कोई ईमानदारीसे अपना हित करना चाहे और कामनाके द्वारा प्रपञ्चमें न फंसे तो अपने इस स्वातन्त्र्यसे वह पूरी तरह लाभान्वित हो सकता है। । यद्यपि तीव्र संस्कारोंके उदय-कालमें व्यक्तिमें हिताहितका विवेक तथा उक्त ईमानदारी होनी सम्भव नहीं है, तदपि संस्कारकोशमें से जब सहज रूपसे कोई एक मन्द संस्कार उदयकी सीमामें प्रवेश कर जाता है तब यदि वह चाहे तो गुरुको शरणको प्राप्त होकर विवेक प्राप्त कर सकता है क्योंकि भोगासक्ति उसे ऐसा करनेकी आज्ञा नहीं देती इसलिये मन्दसंस्कारके उदयका जो अवसर उसे मिला था, वह व्यर्थ चला जाता है। हितोन्मुख होनेके लिये ऐसे अवसर हमारे जीवनमें अनेकों बार आते हैं परन्तु हम उनका मूल्यांकन न करके यों ही व्यर्थ गंवा देते हैं। ऐसा अवसरके प्राप्त होनेपर यदि कोई उसका सदुपयोग करे तो उसकी दिशा बदल जाती है। इस अवसरकी प्राप्ति होनेसे पहले उसकी प्रत्येक क्रिया किसी न किसी रूपमें भोगासक्तिसे युक्त होती थी, इसलिये सत्तामें पड़े संस्कारोंकी स्थितिका उत्कर्षण होता जाता था और साथ-साथ पुण्यात्मक संस्कार पापात्मक के रूपमें संक्रमित होते जाते थे। पापात्मक बन-बनकर वे उदयमें आते रहते थे, जिसके कारण जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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