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________________ ३०-स्वातन्त्र्य १८३ स्वतन्त्रताका द्वार भी सदा खुला हुआ है। समन्वय ऐसा होना चाहिए जिसमें सिद्धान्त भी बाधित न हो और आपका मार्ग भी अवरुद्ध न हो। वास्तवमें ऐसा ही है परन्तु कुछ ध्यानसे देखना होगा। द्रव्य कर्मोंका अथवा संस्कारोंका बन्ध जीवके भाव-कर्मोका डिग्री टु डिग्री अनुसरण करता है, यह सत्य है। और इसी प्रकार यह भी सत्य है कि जीवके परिणाम कर्मोदयका डिग्री टु डिग्री अनुसरण करते हैं। परन्तु सौभाग्यवश कर्मका उदय अपने बंधका डिग्री टु डिग्री अनुसरण नहीं करता। उदय तथा बन्धके मध्य सत्ताके कोशकी वह विशाल खाई पड़ी है जिसमें प्रतिसमय अनेकों परिवर्तन होते रहते हैं। उत्कर्षण, अपकर्षण तथा संक्रमणके नामसे उनका उल्लेख पहले किया जा चुका है। ___ यद्यपि उदयकी सीमामें प्रवेश पानेके पश्चात् कर्म या संस्कारमें किसी भी प्रकारका परिवर्तन होना सम्भव नहीं, तदपि उदयकी सीमामें प्रवेश करनेसे पहले उसमें सब कुछ होना सम्भव है । यद्यपि बन्धके कुछ ही काल पश्चात् द्रव्य-कर्म अथवा संस्कार जीवको अपना प्रभाव दिखाना प्रारम्भ कर देता है, तदपि सत्तामें स्थित द्रव्यकी अपेक्षा उसका परिमाण नगण्य तुल्य है। सत्ता-स्थित सारे द्रव्यकी स्थिति इतनी लम्बी होती है कि उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमणकी विविध श्रेणियोंको पार करता हआ जबतक वह उदयकी सीमा में प्रवेश करता है तबतक उसका रूप कुछका कुछ हो चुका होता है। यहां यह बात याद रखने योग्य है कि कर्म या संस्कार जबतक उदयकी सीमा में प्रवेश नहीं कर जाता तबतक जीवके परिणामोपर उसका कुछ भी प्रभाव पड़ना सम्भव नहीं। कर्म-सिद्धान्तके इस तथ्य में ही हमारी स्वतन्त्रता निवद्ध है। २. दिशाफेर हिताहितके विवेकसे शून्य सकल संसारीजन ऐन्द्रिय-भोगमें अत्यन्त आसक्त रहनेके कारण कभी भी अपने स्वातन्त्र्यकी ओर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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