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________________ २९-दस करण १७९ हो जाता है, और उसका क्षय चश्मेसे लिये गये उस पानी जैसा है जोकि हज़ार बार हिलानेपर भी जैसा का तैसा निर्मल रहता है। ५. निधत निकात्रित निधत्त तथा निकाचित उस कठोर संस्कारको संज्ञा है, जिनमें किसी भी प्रकार कभी कोई परिवर्तन होना सम्भव नहीं होता। अपना पुरा फल दिये बिना वह नए नहीं होता। व्यक्तिको उसका फल अवश्य भोगना पड़ता है। इन दोनोंमें निकाचितको अपेक्षा निवत्त कुछ कोमल होता है, क्योंकि इसमें यद्यपि अपकर्षण तथा संक्रमण होना सम्भव नहीं, तदपि उत्कर्षण अवश्य हो सकता है, जबकि निकाचितमें अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण तीनों ही नहीं हो सकते। ६. बसों करणों का एकत्र करणानुयोगमें कथित दसों करणों या अधिकारोंको जिस प्रकार सिद्धान्त-शास्त्र द्रव्य-कर्ममें घटित करके बताता है, उसी प्रकार वे अध्यात्मकी दृष्टिसे संस्कारमें भा घटित किए जा सकते हैं। न सबका उल्लेख यद्यपि क्रमपूर्वक आगे-पीछे किया गया है, परन्तु वस्तुतः इनमें आगे-पोछेका कोई क्रम नहीं है। वस्तु-स्थितिमें दमों बातें युगपत् होती हैं। विचार करनेपर कोई भी एक समयवर्ती कर्म या क्रिया इन दसोंका सामूहिक फल होता है, इसलिये उससे इन दसोंकी कार्य-सिद्धि अथवा कारण-सिद्धि होती है । किसी भी एक समयवर्ती क्रियामें ये दसों बातें युगपत् घटित की जा सकतो हैं। यथा मनकी, वचनकी, अथवा शरीरकी कोई भी क्रिया क्यों न हो, संस्कारोदयके बिना होना सम्भव नहीं। हमारी प्रत्येक क्रिया अथवा हमारा प्रत्येक परिणाम संस्कारोदयका डिग्री टु डिग्री अनुसरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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