SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७८ २-कर्म खण्ड उत्कर्षणको प्राप्त नहीं होते, यह उनका उपशम है। यदि ऐसा न हो तो अपकर्षण द्वारा अपने कालसे पहले ही उदयमें आकर वे उपशमके मज़ेको किरकिरा कर दें। यद्यपि उदयका यहां सर्वथा अभाव नहीं है, परन्तु जितना कुछ उदय यहां पर उपलब्ध होता है, उसकी शक्ति क्योंकि अत्यन्त क्षीण है, इसलिये उसकी गणना गौण कर दी जाती है। जिस प्रकार बहुत कालतक आंखमिचौनी करते रहनेके उपरान्त रोगीका नेत्र-स्पन्दन सदाके लिये बन्द हो जाता है और स्वस्थ व्यक्तिकी भांति वह पूरी तरह नेत्र खोलनेके लिय समर्थ हो जाता है, उसी प्रकार कई जन्मोंतक क्षायोपशमिक भावमें बाहर-भीतर झूलते रहने वाला चित्त-स्पन्दन सदाके लिये शान्त हो जाता है और व्यक्ति पूरी तरह समताको भूमिमें प्रवेश पानेके लिये समर्थ हो जाता है, उसी प्रकार वह व्यक्ति भी सदाके लिए समताको हस्तगत करके निश्चिन्त हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि इस अवस्थामें संस्कारका मूलोच्छेदन हो जाता है, सत्तामें भी. उसका कहीं साया शेष नहीं रह जाता। इसलिये वह किसी समय उदय आकर अपना प्रभाव दिखाने लगे, ऐसी आशंका अब शेष नहीं रह जाती । संस्कारका यह मूलोच्छेद अथवा नाश सैद्धान्तिक भाषामें 'क्षय' कहा जाता है। समताकी दृष्टिसे उपशम तथा क्षयमें यद्यपि कोई अन्तर नहीं है, दोनों ही पूर्ण हैं, तदपि स्थिति-कालकी दृष्टिसे दोनोंमें महान् अन्तर है। उपशमकृत समता क्षण मात्रके लिये अपने दर्शन देकर समाप्त हो जाती है, जबकि क्षयकृत समता सदाके लिये स्थित रहती है, एक बार उत्पन्न हो जानेके पश्चात् कभी समाप्त नहीं होती। संस्कारका उपशम उस निथरे हुए पानी जैसा है जोकि हिल जाने पर तुरत तलीमें बैठी शेवालके उदित हो जानेके कारण मैला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy