________________
२९-दस करण
क्षणसे अधिक वह उसे टिकाये रखने के लिये समर्थ नहीं हो पाता। इसके तेजको सहन करनेके लिये समर्थ न होते हुए उसका चित्त पुनः तत्त्वसे हटकर बाह्य-जगत्में आ जाता है। उसका यह क्षणिक भाव व्यक्तिकी ओर देखने पर रसानुभूति और संस्कारोंकी ओर देखनेपर 'उपशम' कहलाता है ।
जिस प्रकार वह रोगी ज्योतिके लोभसे अपनी मुंदी हुई आंखोंको पुनः पुन; खोलता है परन्तु पूरी ज्योतिको सहन करनेके लिये समर्थ न होनेके कारण उन्हें पूरी न खोलकर किंचिन्मात्र ही खोलता है, इसी प्रकार उपशमवाली रसानुभूतिके लोभसे व्यक्ति पुनः पुनः समताकी ओर झुकनेका प्रयत्न करता है, परन्तु पूर्ण समताको सहन करनेके लिये समर्थ न होनेके कारण पूरी तरह उसमें प्रवेश न करके किंचिन्मात्र ही प्रवेश करता है। किंचिन्मात्र आंख खोलनेके कारण जिस प्रकार वह रोगी ज्योतिको देखता तो अवश्य है परन्तु पूरी तरह नहीं देखता, धुंधला देखता है, इसी प्रकार किंचिन्मात्र समतामें प्रवेश पानेके कारण व्यक्तिको रसानुभूति तो अवश्य होती है परन्तु वैसी पूरी नहीं होती जैसी कि उपशमवाले आद्य क्षणमें हुई थी, कुछ धुंधली होती है। यह धुंधली रसानुभूति उस व्यक्तिका 'क्षायोपशमिक-भाव' कहलाता है और संस्कारोंकी शक्ति क्षीण होकर उदयमें आना उसका 'क्षयोपशम' कहलाता है।
संस्कारोंकी इस अवस्था में क्षय तथा उपशम दोनोंका सम्मिश्रण होनेसे 'क्षयोपशम' संज्ञा सार्थक है। वर्तमान कालमें उदय आने योग्य संस्कारकी शक्ति उदय आनेसे पूर्व क्षणमें अत्यन्त क्षीण हो जाती है, यह उसका क्षय है; और आगामी कालमें उदय आने योग्य संस्कार सत्ताके कोशमें ज्योंके त्यों स्थित रहते हैं, अपकर्षण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org