________________
१६४
२-कर्म खण्ड
दिलाया जानेपर उसके प्रति आत्म-निन्दन, ३. बिना गुरुकी सहायताके स्वयं ही उस ओर लक्ष्यका जाना, ४. भीतर उदित हो जानेपर भी बाहर प्रकट न हो पाना, ५. भीतर उदित हो जाना भी बन्द हो जाना। ___इसी प्रकार संस्कार बदला भी जा सकता है, शुभसे अशुभ और अशुभसे शुभ किया जा सकता है। भोगासक्तिका संस्कार आत्मासक्तिके रूपमें रूपान्तरित किया जा सकता है, मद्यपानका संस्कार समरस-पानकी ओर उन्मुख हो सकता है। ५. संस्कार बन्धन
इसका विशेष उल्लेख आगे यथास्थान किया जायेगा। यहां केवल इतना समझिये कि निरन्तर नये-नये संस्कारोंकी अभिवृद्धि होते रहनेसे तथा पुराने संस्कारोंका परिपोषण होते रहनेसे इनका कोश बराबर बढ़ता रहता है और कभी समाप्त नहीं होता। भौतिक कोश तो उसमें से कुछ निकालनेपर घटता है, परन्तु यह कोश इसमें से कुछ निकालनेपर बढ़ता है, क्योंकि किसी भी संस्कारके अनुसार काम करने पर वह क्षीण होनेकी वजाय पुष्ट हो जाता है। दर्शन-खण्डमें चित्तगत विकल्पोंके जिस अक्षय कोशकी स्थापना की गई है और जिसे वहां Subconcience या उपचेतना कहा गया है उसीमें संस्कारों के इस कोशका भी अन्तर्भाव हो जाता है।
दर्शन-खण्डके प्रथम अधिकारमें जो व्यक्तिको परिस्थितियों के अधीन बताया गया था, वह भी वास्तव में इन संस्कारोंके कारण से ही है । तत्त्वदृष्टिसे देखनेपर बाह्य-जगत्की परिस्थितियां कोई वस्तु नहीं है । हमारे भीतर Subconcience या उपचेतनामें बैठे हुए जन्मजन्मान्तरके ये संस्कार ही वस्तु हैं। बाह्य-परिस्थितियां केवल
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org