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२७. जीवन्मुक्ति
१. द्वन्द्व ___ लीजिये अब स्वार्थके विश्व-विजयी प्रभावका थोड़ा सा दर्शन कीजिये। इसकी शक्ति अचिन्त्य है। यह शून्यमें सृष्टि करता है, बिना उपादानके जगत् खड़ा करता है, बिना मिट्टीके घड़ा बनाता है। इसके कारण ही भीतरमें द्वन्द्वात्मक जगत् बसता है। द्वन्द्व . अर्थात् परस्पर विरोधी दो-दो पक्ष । इष्ट-अनिष्ट, सुन्दर-असुन्दर, ग्राह्य-त्याज्य, कर्तव्य-अकर्तव्य, पुण्य-पाप. सुख-दुःख, जीवन-मरण, मम-तव, सज्जन-दुर्जन, मित्र-शत्रु कंचन-पाषाण, महल-मसान इत्यादि।
जिस पदार्थको भोगने में मुझे रस आता है वह मेरे लिये इष्ट है तद्वयतिरिक्त अन्य सर्व अनिष्ट हैं। जो इष्ट है वही सुन्दर है तथा ग्राह्य है, जो अनिष्ट है वह असुन्दर है तथा त्याज्य है। ग्राह्यको प्राप्त करना और त्याज्यको त्यागना मेरा कर्तव्य है, तद्व्यतिरिक्त अन्य सब अकर्तव्य हैं। कर्तव्य-कर्म करना पुण्य है, और अकर्तव्यकर्म करना पाप है। 'मैंने अपना कर्तव्य पूरा किया' ऐसी सन्तुष्टिका जनक होनेसे पुण्य सुख है, इसके विपरीत पाप दुःख है। सुख
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