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________________ १४८ २-कर्म खण्ड नहीं होती है। इसलिये कर्तृत्वकी अहंकार-युक्त कामना ही स्वामित्व बुद्धिकी जननी है। किसी कामको करनेकी अथवा किसी पदार्थको प्राप्त करनेकी अथवा उसके विषयमें जानकारी प्राप्त करनेकी स्वार्थ कामना क्योंकि भोक्तृत्वके कारणसे होती है, इसलिये जिस पदार्थके भोगमें मुझे रस आता है उसे ही जानने अथवा प्राप्त करनेके लिये मैं उद्यम करता हूं। विपरीत इसके जो पदार्थ भोगनेमें मुझे कटु लगता है उसको जानने अथवा करनेकी इच्छा मैं नहीं करता, और अपने पास रखनेकी बजाय फेंक देना या दूसरेको दे देना मैं अच्छा समझता हूँ। इसलिये यह सिद्ध होता है कि ज्ञातृत्व तथा कर्तृत्वकी कामनाका और उसके द्वारा होनेवाली स्वामित्व बुद्धिका एक मात्र कारण फलभोग अथवा सुख-संवेदन है। 'आतमको हित है सुख' यहांसे ही सकल पुरुषार्थ प्रारम्भ होते हैं । फलभोगको आकांक्षा रूप यह भोक्तृत्व अथवा सुख-संवेदन ही वास्तवमें वह स्वार्थ है जिसे कि सकल बन्धनोंका, सकल कषायोंका, सकल अनीतियोंका तथा सकल पापोंका बीज बताया गया है। यद्यपि यह छोटी-सी बात दिखती है तदपि यह कितनी बड़ी है इसे ज्ञानी-जन ही जानते हैं। इसके प्रभावको जाननेसे वह विवेक उत्पन्न होता है जिससे कि साधक असत्यसे बचकर सत्यकी ओर गति कर सके। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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