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२- कर्म खण्ड
जीवन है और दुःख मरण है । सुख-सम्पादक सामग्री मम है और दुःख - सम्पादक सामग्री तव है। मेरे सुखमें सहायक होनेसे व्यक्ति सज्जन तथा मित्र है, सुख-विघातक तथा दुःखवर्धक होने से वही दुर्जन तथा शत्रु है । सज्जन, मित्र, कांचन तथा महल इष्ट हैं, दुर्जन, शत्रु, मसान तथा पाषाण अनिष्ट हैं ।
विस्तार जितना करो कम है। एक-एक द्वन्द्वकी शाखायें तथा उपशाखायें अनन्त हैं । जिस प्रकार कोशकार ( रेशमका कीड़ा ) अपने ही भीतरसे तन्तु निकालकर उसे अपने ही ऊपर लपेटता रहता है, उसी प्रकार फल भोगकी आकांक्षासे युक्त चित्त भी अपने ही भीतरसे इष्ट-अनिष्ट आदि विविध द्वन्द्व उत्पन्न करके उन्हें अपने ऊपर लपेटता रहता है, और कोशकारकी भांति उसमें जकड़कर लाचार हो जाता है । सत्य-असत्यका, हित-अहितका अथवा स्वपरका समस्त विवेक भूल जाता है । द्वन्द्व जिधर खींचकर ले जाते हैं उधर ही उसे जाना पड़ता है । बस यही बन्धन है ।
परस्पर विरोधी दो पक्षवाले इन सकल द्वन्द्वोंकी पृष्ठभूमि में सर्वत्र सर्वदा एक इष्टानिष्ट वाला आद्य द्वन्द्व ही नृत्य कर रहा है । इष्टताके प्रति आकर्षण और अनिष्टताके प्रति विकर्षण होना स्वाभाविक है । आकर्षण राग है, और विकर्षण द्वेष | यह रागद्वेष ही वह भावकर्म है जिसे कि शास्त्रों में बन्धका प्रधान हेतु कहा गया है ।
निःसन्देह व्यवहार भूमि पर 'राग-द्वेष' शब्दका प्रयोग सर्वत्र ऐन्द्रिय भोगोंके प्रति प्रसिद्ध है, तदपि इसकी विशाल कुक्षि पारमार्थिक भोगकी आकांक्षाको भी अपने भीतर लिये बैठी है। पारमार्थिक साधनाके क्षेत्रमें व्रत, त्याग आदि का जो उपदेश आचार-शास्त्रों में प्रसिद्ध है, तात्त्विक दृष्टिसे देखने पर उसमें भी राग-द्वेष तो है ही । यह सुनकर चौंक न जाना । यहाँ तात्त्विक
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