________________
१३०
२-कर्म खण्ड तेरा, अनिष्ट, शत्रु, अकर्तव्य, त्याज्य आदि वाला दूसरा पक्ष प्रतिकूल तथा विकर्षक है। इसी प्रकार राग तथा द्वेषमें राग वाला एक पक्ष आकर्षक और द्वेषवाला दूसरा पक्ष विकर्षक है। अनुकूल पक्षोंके प्रति आकर्षित होना अर्थात् उन्हें जानने, प्राप्त करने तथा भोगने के लिये प्रवृत्त होना राग कहलाता है। इसी प्रकार प्रतिकूल पक्षोंके प्रति विकर्षित होना अर्थात् उन्हें अपनेसे दूर हटाने तथा त्याग करनेके लिये प्रवृत्त होना द्वेष कहलाता है।
परस्पर विषम होनेके कारण ये समताके विरुद्ध हैं। जिस प्रकार समता शुद्ध-हृदयका भाव है, उसी प्रकार विषमता भी उससे विरुद्ध होनेके कारण मलिन हृदयका भाव है। तात्त्विक दृष्टिसे देखनेपर जिस प्रकार क्षमा मार्दव आदि दश धर्म समताकी विविध स्फुरणायें हैं उसी प्रकार उनसे विरुद्ध क्रोध मान आदि विषमताकी विविध स्फुरणायें हैं। समग्रको आत्मसात् करनेके कारण समता प्रेम है और देहाध्यस्त संकीर्ण अहंके प्रति तन्मय होने के कारण विषमता स्वार्थ है। यह बात हृदयवाले अधिकारमें बताई जा चुकी है।
राग-द्वेषका बड़ा लम्बा चौड़ा विस्तार है। निःसन्देह व्यवहार भूमिपर इसका प्रयोग ऐन्द्रिय विषयोंके ग्रहण त्यागके अर्थमें होता है, परन्तु तात्त्विक दृष्टिसे देखनेपर व्यवहार-चारित्रके क्षेत्रमें जो 'शुभे प्रवृत्ति तथा अशुभे निवृत्ति' कही जाती है वह भी वास्तवमें राग-द्वेष ही है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं। इस विषयको विवेचना आगे यथास्थान की जाने वाली है। दो-दो अक्षरों वाले इन दो शब्दोंके गर्भमें क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अनन्तों भेदोंसे युक्त सकल काषायिक जगत् स्थित है। दूसरोंको अपनेसे दूर हटानेके उद्देश्यसे प्रवृत्त होनेके कारण क्रोध तथा मान विकर्षक शक्तिसे युक्त हैं, इसलिये द्वेषमें गर्भित हैं, और दूसरी ओर अन्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org