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________________ २३- भावकर्म १२९ इतने क्षीण होते हैं कि अगले समयमें ही वायु-मण्डल में विलीन हो जाते हैं । दूसरी ओर जिस प्रकार पसीनेसे गीले हुए कपड़ोंपर वह धूल चिपटकर उन्हें मैला कर देती है, इसी प्रकार कषाय अथवा स्वार्थ-रंजित चित्तके साथ तादात्म्यको प्राप्त होकर उक्त प्रवृत्तियों के संस्कार उसे मैला कर देते हैं । जिस प्रकार सोडा साबुनका प्रयोग किये बिना कपड़ोंका मेल नहीं छूटता, इसी प्रकार विवेक तथा साधनाके बिना चित्तगत संस्कारोंका मेल नहीं छूटता । इसीलिये मन वचन तथा कायके माध्यमसे बाहर दिखनेवाली प्रवृत्ति वास्तव में बन्धनकारी नहीं है, प्रत्युत वह कषाय अथवा स्वार्थ ही बन्धनकारी है, जिसकी प्रेरणासे कि व्यक्ति उन कर्मों में प्रवृत्त हुआ है । कषाय या स्वार्थ के अभाव में वह कर्म केवल ईर्यापथ अर्थात् आने-जाने वाला रहता है, चिपट कर संसारवृद्धि करने वाला नहीं बनता । २. राग-द्वेष कषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः । अहंकारवाले अधिकारमें यह बात विस्तारके साथ हृदयंगम कराई जा चुकी है कि समग्रको युगपत् ग्रहण न करनेके कारण क्षुद्र अहंकार अपने भीतर में मैं मेरा, तू-तेरा, इष्ट-अनिष्ट, शत्रु-मित्र, कर्तव्य अकर्तव्य, ग्राह्य त्याज्य, आदि रूप परस्पर विरोधी तथा विषम द्वन्द्वोंकी सृष्टि कर लेता है, और उनके अनुसार जगत् में विषम व्यवहार करता है । अध्यात्म शास्त्रमें अहंकारका जो भाव विषम द्वन्द्वोंके नामसे प्रसिद्ध है, उसे ही आचार - शास्त्रमें राग तथा द्वेष कहा गया है इस विषम द्वन्द्वों में मैं, मेरा, इष्ट, मित्र, कर्तव्य, ग्राह्य आदि वाला एक पक्ष अनुकूल तथा आकर्षक है, और तू, ९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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