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२३. भावकर्म
१. सकषाय-प्रकषाय
मन वचन कायके योगसे होनेवाली ज्ञातृत्व, कर्तृत्व तथा भोक्तृत्व रूप हमारी सकल प्रवृत्तियोंको अबतक 'कर्म' कहा जाता रहा है । यद्यपि सामान्य दृष्टि से देखनेपर ये कर्म अवश्य हैं परन्तु कर्म-सिद्धान्तकी दृष्टिसे देखनेपर ये प्रधान कर्म नहीं हैं। इसका कारण यह है कि स्वयं कर्म रूप होते हुए भी ये जीवके लिये बन्धनकारी नहीं हैं । तत्क्षण समाप्त हो जाने के कारण इनके द्वारा बीज-वृक्ष न्यायवाली पूर्वोक्त संस्कार-परम्परा का निर्माण नहीं होता। संस्कारपरम्पराका कारण वास्तवमें प्रवृत्ति नहीं है, प्रत्युत वह कषाय या स्वार्थ है जिसकी प्रेरणासे कि व्यक्ति कर्ममें प्रवृत्त होता है। जिस प्रकार धूलमें खेलनेसे कपड़ोंपर धूल अवश्य पड़ती है परन्तु यदि कपड़े पसीने के द्वारा गीले नहीं हो गये हैं तो उन पर पड़ी हुई वह धूल उनपर चिपकती नहीं है, इसी प्रकार मन वचन कायकी प्रवृत्तिसे कर्म होता अवश्य है परन्तु यदि भीतरमें कषाय या स्वार्थ नहीं है तो चित्त-भूमिपर अथवा कार्मण शरीरपर उसके संस्कार अंकित नहीं होते हैं। यदि होते भी हैं तो वे
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