SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२-कर्म-विधान १२३ शरीर द्रव्य-करण है, और इसके भीतर स्थित कार्मण नामवाला सूक्ष्म शरीर यद्यपि परमाणुओंसे निर्मित होनेके कारण द्रव्यात्मक है तदपि कर्मोंके संस्कारोंको ग्रहण करनेकी शक्तिसे युक्त होनेके कारण भावकरणके रूपमें ग्रहण किया जाता है। अर्थात् औदारिक शरीर द्रव्य-काय है और कार्मण शरीर भाव-काय । २. विविध कर्म कर्म-सिद्धान्तके क्षेत्र में क्योंकि कार्मण नामवाला यह भाव शरीर ही सर्वप्रधान है इसलिये इसको दृष्टिमें रखते हुए अपने प्रधान विषयका अर्थात् कर्मका.एक बार पुनः अध्ययन करना आवश्यक प्रतीत होता है। जिस प्रकार अध्यात्मके क्षेत्र में कर्मकी. जातियोंकी अपेक्षा ज्ञातृत्व आदिके भेदसे कृतक कर्म तीन प्रकारका माना गया है, उसी प्रकार कर्म-सिद्धान्तके क्षेत्रमें कारण कार्य सम्बन्धकी अपेक्षा कर्म तीन प्रकार का माना गया है-भावकर्म, 'द्रव्यकर्म और नोकर्म । मन, वचन कायके योगसे होनेवाली ज्ञातृत्व, कर्तृत्व तथा भोक्तृत्व रूप त्रिविध प्रवृत्ति 'कर्म' शब्दका सामान्य अर्थ है । यही प्रवृत्ति जब कषाय अथवा रागद्वेषसे युक्त होती है तो भावकर्म कहलाती है। इस विषयका विवेचन आगे पृथक् अधिकारमें किया जाने वाला है। कार्मण नामसे प्रसिद्ध जिस सुक्ष्म शरीरका परिचय पूर्व अधिकारमें दिया गया है वह 'द्रव्य-कर्म' कहलाता है और बाहरका यह स्थूल औदारिक शरीर 'नोकर्म' है। इन दोनोंका संक्षिप्त सा परिचय देना इस अधिकारका उद्देश्य है। ३. द्रव्य-कर्म ___ यह पहले वताया जा चुका है कि कार्मण जातिकी जिन वर्गणाओंके द्वारा कार्मण नामक भाव-कायका निर्माण होता है वे यद्यपि परमाणुओंसे निर्मित होनेके कारण जड़ हैं, तदपि चेतनाके उक्त कर्मोके संस्कारोंको ग्रहण करनेके लिये समर्थ होनेके कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy