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________________ २२-कर्म-विधान १. पुनरावृत्ति भावावेगमें हम बहुत दूर आगे निकल आये हैं, इसलिये आइये अब तकके सकल सन्धानपर एक विहंगम दृष्टि डाल लें। मन, वाणी तथा शरीरके द्वारा जो कुछ भी हम संकल्प पूर्वक विचारते हैं, बोलते हैं तथा करते हैं वह हमारा कृतक कर्म है, जो ज्ञातृत्व कर्तृत्व तथा भोक्तृत्वके रूपमें त्रिधा विभक्त किया जा सकता है। नेत्रादि ज्ञानकरण, हाथ पांव आदि कर्मकरण और मन बुद्धि आदि अन्तष्करण ये तीन इसके साधन हैं, जिनको भीतरी चेतना अपनी योग तथा उपयोग शक्तिके द्वारा नित्य चालित करती रहती है। जिस प्रकार नेत्र आदि ज्ञानकरण उपयोगके क्षेत्रमें साधन हैं उसी प्रकार मन वचन तथा काय योगके क्षेत्रमें साधन हैं। ये सभी साधन अथवा करण द्रव्य तथा भावके भेदसे दो-दो प्रकारके होते हैं। नेत्र-गोलक आदिके रूपमें परमाणुओंके. द्वारा रचित शरीरके अंगोपांग द्रव्य-करण हैं और उसकी पृष्ठभूमिमें स्थित उनको चालित करने वाली चेतनाकी योग तथा उपयोग शक्ति भाव-करण अथवा भाव-साधन है। काय-योगके क्षेत्रमें औदारिक नाम वाला यह स्थूल - १२२ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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