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________________ १२४ २-कर्म खण्ड चेतन सरीखी हैं। इन वर्गणाओंसे निर्मित होनेके कारण कार्मण शरीरका उक्त कर्मके साथ इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि व्यावहारिक क्षेत्रमें इन दोनोंको एक दूसरेसे विलग किया जाना सम्भव नहीं है। यह कहनेकी आवश्यकता नहीं कि मन, वाणी तथा शरीरके द्वारा हम सोते, जागते, उठते, बैठते हर समय कुछ न कुछ करते रहते हैं। इसीको शास्त्रोंमें आस्रव नामका तत्त्व कहा गया है, जो कि आगे चलकर संसार बन्धनके रूपमें परिवर्तित हो जाता है। 'कायवाड्मनःकर्म योगः। स आश्रवः'। यदि इस आश्रव अथवा कर्मप्रवृत्तिके संस्कारोंका संग्रह करनेके 'लिए प्रकृतिको ओरसे हमें कोई साधन न जुटाया गया होता तो काम करनेका क्षण बीत जानेपर उसके साथ ही कर्म भी सर्वथा बीत जाता अथवा नष्ट हो जाता, और हमें किसी प्रकार भी बन्धनमें पड़नेका भय नहीं रह जाता। परन्तु यदि कदाचित् ऐसा हो जाता तो जगत्के प्राणी सर्वथा निर्भय, निरर्गल तथा स्वच्छन्द हो जाते । न्याय नीति नामकी कोई वस्तु शेष न रह जाती। एक एक व्यक्ति सारे जगत्को निगल जानेके लिये तैयार हो जाता। इसलिये हमें प्रकृतिका अनुग्रह मानना चाहिए कि उसने कृतक कर्मोंके सकल संस्कारोंका संग्रह करनेके लिये न चाहते हुए भी प्रत्येक प्राणीको अपनी ओरसे 'कार्मणशरीर' नामक एक ऐसा साधन प्रदान कर रखा है कि उसके द्वारा किए गए अच्छे या बुरे सकल कर्मोके संस्कार बिना किसी प्रयत्नके स्वयं उसपर अंकित होते रहें और यथासमय उदित हो-होकर उसे यह याद दिलाते रहें कि तूने किसी समय ऐसा कार्य किया था जिसका दण्ड अथवा उपहार यहां तुझे मिल रहा है। जिस प्रकार दण्ड पाते हुए रो रहे हो इसी प्रकार कर्म करते हुए यदि यह सोच लेते कि भीतरमें स्थित प्रकृति-प्रदत्त कार्मण-शरीर तेरे प्रत्येक कर्मों का निरीक्षण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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