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________________ ११२ २- कर्म खण्ड अन्तर्गत हैं । इन सबसे समवेत परमाणुओं से निर्मित शरीर द्रव्यकाय है और इसकी पृष्ठभूमि में स्थित चेतनाकी वह योगशक्ति भावकाय है जिससे कि शरीर और उसके सब अंगोपांग चेष्टा करते हैं । काय तथा उसके अंगोपांगों की चेष्टामें हाथ पांव आदिको क्रियायें प्रसिद्ध हैं । वागिन्द्रिय अथवा जिह्वाकी चेष्टा खाते तथा बोलते समय उसका इधर-उधर हिलना है जिसे भावकापकी चेष्टामें गत किया जा सकता है परन्तु इसके द्वारा प्रकट होनेवाले शब्द को हम काय नहीं कह सकते क्योंकि उसका ग्रहण द्रव्यवचनके रूप में किया जा चुका है । इसीप्रकार नेत्रपुटका निमेषोन्मेष अथवा पुतलीका इधर-उधर चलना ही भावकायकी चेष्टा गर्भित किया जा सकता है, उसके द्वारा जो काले-पीले आदिका ग्रहण होता है। वह नहीं । इसी प्रकार त्वचाका थरकना अथवा फरकना ही भावकायकी चेष्टामें सम्मिलित किया जा सकता है, उसके द्वारा होनेवाली शीत उष्ण आदिकी प्रतीतियां नहीं । मन या अन्तष्करण में विषय से विषयान्तर अथवा विकल्पसे विकल्पान्तर होनेवाली जो क्रिया होती है उसका ग्रहण भी यहां नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसका अन्तर्भाव भाव -मनमें किया जा चुका है । तात्पर्य यह है कि परमाणुओंसे निर्मित शरीर तथा उसके सकल अंगोपांग द्रव्यकाय हैं और इन सब अंगोपांगोंकी हलनड्लनरूप क्रिया भावकाय है । द्रव्यमन, द्रव्यवचन तथा द्रव्यकाय ये तीनों ही क्योंकि परमाणुओंकी रचनायें हैं क्रिया नहीं, इसलिये योगके प्रकरणमें उनका ग्रहण नहीं होता है । वे योगके कारण हैं परन्तु स्वयं योग नहीं हैं, जिस प्रकार कि नेत्र रूपग्रहण वाले ज्ञानोपयोगका करण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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