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१८-कर्म-करण मन्त्री बुद्धिकी न्यायशालामें भेजता है। मन तथा चित्तके द्वारा किये गये परीक्षणका और अहंकारके द्वारा अंकित की गयी मुद्राओंका पुनरपि सूक्ष्म निरीक्षण तथा परीक्षण करके वह 'यह विषय ग्राह्य है अथवा त्याज्य है, कर्तव्य है अथवा अकर्तव्य है' ऐसा निर्णय सुना देती है।
बुद्धि के इस निर्णयको सुनकर अहंकार यदि उसे अनुकूल पाता है तो हर्षित हो जाता है और यदि प्रतिकूल पाता है तो उदास हो जाता है। हर्षित अवस्थामें उत्साहके साथ और उदास अवस्था कुछ अनमने भावसे वह बुद्धिकी उस आज्ञाको चित्तके प्रति प्रदान करता है जिसे प्राप्त करके वह भी अहंकारकी ही भाँति हर्षित अथवा उदास होकर आगा-पीछा देखने लगता है, और उसे समुचित कार्यवाहीके लिये मनके पास भेज देता है। __ तदनुसार मन कर्मेन्द्रियोंको आज्ञा करता है कि तुरत इस विषयको बन्दी बनाकर मेरे दरबारमें उपस्थित करो, अथवा इसे यहाँसे हटाकर सागरमें डुबा आओ, अथवा इसमें कुछ इस प्रकारका परिवर्तन करो इत्यादि। अपने स्वामीकी आज्ञा पाकर हाथ पांव आदि सभी कर्मेन्द्रियें निविलम्ब अपने-अपने काममें जुट जाती हैं और उस समय तक अथक परिश्रम करती रहती हैं जबतक कि अपने स्वामी मनको सन्तुष्ट न कर लें। इनके कार्यसे सन्तुष्ट होकर मन अहंकारके माध्यमसे बुद्धिके प्रति इनको सिफ़ारिश करता है। बुद्धि प्रसन्न होकर अपने इन सभी सामन्तोंको अनेकानेक सम्माननीय पदोंसे विभूषित करती है, जिसके कारण ये उत्तरोत्तर अधिक उत्साहके साथ उसकी सेवामें इस प्रकार जुटी रहती हैं कि उन्हें यह भी सोचनेको अवकाश नहीं मिलता कि हम क्या कर रही हैं और क्यों कर रही हैं।
इनकी इस मूर्खतापर मन ही मन मुस्कुराते हुए गुरुदेव यद्यपि सदा अपनी ओरसे इन्हें सावधान करते रहते हैं परन्तु जानने
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