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________________ १७-कर्म अपनी पर्यायका कर्ता है, उसकी पर्याय या परिणाम उसका कर्म है और नित्य नूतन पर्यायको प्राप्त करने तथा पुरातनको छोड़नेके प्रति नित्य धावमान रहना उसकी क्रिया है। इस प्रकार कर्ता, कर्म तथा क्रिया ये तीनों भले ही समझने तथा समझानेके लिये तीन कहे गये हों परन्तु वस्तुतः ये पृथक्-पृथक् कुछ न होकर एक हैं। केवल उस-उस रूपसे देखनेवाले हमारे विकल्पके कारण ही ये तीन प्रतीत हो रहे हैं। , लोंक-प्रसिद्ध अर्थसे विपरीत कर्ता, कर्म आदिके इस विचित्र लक्षणको सुनकर चित्तमें यह शंका उदित हो जाना स्वाभाविक है कि जड़ तथा चेतन सभी वस्तुओंमें जो सहज रूपसे स्वयं हो रहा है ऐसे कर्मका त्याग कैसे किया जा सकता है। यदि नहीं किया जा सकता तो कर्मोके त्यागकी बात शास्त्रोंमें क्यों की गयी है। शंका उचित है, परन्तु इसका अवस्थान उसी समय तक है जबतक कि आपको कर्मके भेद-प्रभेदोंका परिचय प्राप्त नहीं हो जाता। कर्म वास्तवमें दो प्रकारका है-कृतक और अकृतक। मैं यह करूँ' इत्याकारक संकल्प पूर्वक किया गया कर्म कृतक कहलाता है और इस प्रकारके संकल्पसे निरपेक्ष जो स्वतः होता है, वह अकृतक कहा जाता है। लोकमें जितने कुछ भी कार्य या कर्म हमें दिखाई देते हैं, वे सब संकल्प-पूर्वक किये गये होनेसे कृतक हैं । इसीके त्यागका उपदेश शास्त्रोंमें किया गया है, सहज रूपसे होनेवाले अकृतक कर्मके त्यागका नहीं। २. विविध कृतक कर्म _ 'मैं यह काम करूं' इस प्रकारके संकल्प-पूर्वक जो काम किया जाता है वह कृतक कहलाता है, जो तीन प्रकारका हो सकता हैज्ञातृत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व । 'मैं यह जानूं' इस प्रकारके संकल्पसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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