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________________ १७. कर्म १. कर्म सामान्य इस सिद्धान्तका सर्व प्रथम प्रश्न है 'कर्म' । कर्म शब्दका सीधासादा अर्थ है 'कार्य' । यद्यपि व्यवहार-भूमिपर हाथ-पाँव आदिके द्वारा कुछ करना धरना कार्य कहा जाता है, जो केवल चेतन शरीरोंमें और प्रधानतः मनुष्योंमें ही देखनेको मिलता है, तदपि इस शब्दका सैद्धान्तिक अर्थ अत्यन्त व्यापक है। जड़ हो या चेतन, मनुष्य हो या कीट पतंग, सभी कुछ न कुछ करने में प्रवृत्त हैं। जड़ या चेतन कोई पदार्थ एक क्षणके लिये भी प्रवृत्ति-शून्य हो सके, यह सम्भव नहीं। - "यः परिणमति स कर्ता, यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म । या परिणतिः क्रिया, तत्रितयं भिन्नं न वस्तुतया ॥" परमार्थ-प्रतिपादक इस सूत्रके अनुसार प्रत्येक पदार्थमें जो प्रतिक्षण नयी-नयी पर्याय उत्पन्न हो-होकर नष्ट होती रहती हैं, वे पर्याय ही नवीन उत्पन्न होनेके कारण उस वस्तुके कार्य अथवा कर्म हैं । सहज स्वाभाविक रूपसे परिणमन करनेवाला पदार्थ स्वयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003676
Book TitleKarm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendra Varni Granthmala
Publication Year1993
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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