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________________ 80 जैन धर्म और जीवन-मूल्य नहीं सका है। मानव-विकास एवं प्राणी मात्र के कल्याण में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। बदलते संदर्भ : आज विश्व का जो स्वरूप है, सामान्यरूप में चिन्तकों को बदला हा नजर पाता है। समाज के मानदण्डों में परिवर्तन, मूल्यों का ह्रास, अनास्थानों की संस्कृति. कुण्ठानों और संत्रासों का जीवन, प्रभाव और भ्रष्ट राजनीति, सम्प्रेषण का माध्यम, भाषाओं का प्रश्न, भौतिकवाद के प्रति लिप्सा-संघर्ष तथा प्राप्ति के प्रति व्यर्थता का बोध आदि वर्तमान युग के बदलते संदर्भ हैं। किन्तु महावीर युग के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह सब परिवर्तन कुछ नया नहीं लगता। इन्हीं सब परिस्थितियों के दबाव ने ही उस समय जैन धर्म एव बौद्ध-धर्म को व्यापकता प्रदान की थी। अन्तर केवल इतना है कि उस समय इन बदलते सन्दर्भो से समाज का एक विशिष्ट वर्ग ही प्रभावित था। सम्पन्नता और चिन्तन के धनी व्यक्तित्व ही शाश्वत मूल्यों की खोज में संलग्न थे। शेष भीड़ उनके पीछे चलती थी। किन्तु आज समाज की हरेक इकाई बदलते परिवेश का अनुभव कर रही है । आज व्यक्ति सामाजिक प्रक्रिया में भागीदार है। और वह परम्परागत आस्थाओं-मूल्यों से इतना निरप्रेक्ष्य है, हो रहा है, कि उन किन्हीं भी सार्वजनीन जीवन मूल्यों अपनाने को तैयार है, जो उसे आज की विकृतियों से मुक्ति दिला सकें । जैन धर्म चूकि लोकधर्म है, व्यक्ति-विकास की उसमें प्रतिष्ठा है, अतः उसके सिद्धान्त आज के बदलते परिवेश में अधिक उपयोगी हो सकते हैं। अहिंसा की प्रतिष्ठा सर्वोपरि : __ जैन धर्म में अहिंसा की प्रतिष्ठा सर्वोपरि है । आज तक उसकी विभिन्न व्याख्याएं और उपयोग हुए हैं। वर्तमान युग में हर व्यक्ति कहीं न कहीं क्रान्तिकारी है। क्योंकि वह प्राधुनिकता के दंश को तीव्रता से अनुभव कर रहा है, वह बदलना चाहता है प्रत्येक ऐसी व्यवस्था को, प्रतिष्ठा को, जो उसके दाय को उस तक नहीं पहुँचने देती। इसके लिए उसका माध्यम बनती है हिंसा, तोड़-फोड़, क्योंकि टुकड़ों में बंटा हुअा व्यक्ति यही कर सकता है। लेकिन हिंसा से किए गए परिवर्तनों का स्थायित्व और प्रभाव इनसे छिपा नहीं है। समाज के प्रत्येक वर्ग पर हिंसा की काली छाया मंडरा रही है। अतः अब अहिंसा की ओर झुकाव अनिवार्य हो गया है । अभी नहीं तो कुछ और भुगतने के बाद हो जाएगा। आखिकार व्यक्ति विकृति से अपने स्वभाव प्रकृति में कमी तो लौटेगा। आज की समस्याओं के सन्दर्भ में 'जीवों को मारना', 'मांस न खाना', आदि परिभाषाओं वाली अहिंसा बहुत छोटी पड़ेगी। क्योंकि आज तो हिंसा ने अनेक रूप धारण कर लिए हैं । परायापन इतना बढ़ गया है कि शत्रु के दर्शन किए बिना ही हम हिंसा करते रहते हैं। अतः हमें फिर जैन धर्म की अहिंसा के चिंतन में लौटना For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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