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जैन धर्म बदलते सन्दर्मों में
पड़ेगा। वहां अहिंमा थी-'दूसरे' को तिरोहित करने की, मिटा देने की। कोई दुःखी है तो 'मैं' हूँ और सुखी है तो 'मैं' हूँ। अपनत्व का इतना विस्तार ही महंकार पोर ईर्ष्या के अस्तिव की जड़ें हिला सकता है, जो हिंसा के मूल कारण हैं। जनधर्म में इसीलिए 'स्व' को जानने पर इतना बल दिया गया है। आत्मज्ञान का विस्तार होने पर अपनी ही हिंसा और अपना अहित कौन करना चाहेगा ? मुझसे छोटा कोई न हो :
जैन धर्म की अहिंसा की भूमिका वर्तमान युग की अन्य समस्याओं का भी उपचार है । अपरिग्रह का सिद्धान्त इसी का विस्तार है। किन्तु अपरिग्रह को प्रायः गलत समझा गया है। अपरिग्रह का अर्थ गरीबी या साधनों का प्रभाव नहीं है। जैन धर्म ने गरीबी को कभी स्वीकृति नहीं दी । वह प्रत्येक क्षेत्र में पूर्णता का पक्षधर है। महावीर का अपरिग्रह दर्शन आज की समाजवादी चिंतन से काफी आगे है। इस यग के समाजवाद का अर्थ है-मुझसे बड़ा कोई न हो। सब मेरे बराबर हो जायें। किसी भी सीमित साधनों और योग्यता वाले व्यक्ति अथवा देश को इस प्रकार की बराबरी लाना बड़ा मुश्किल है। जैनधर्म के अपरिग्रह का चिन्तन है-मुझ से छोटा कोई न हो। अर्थात् मेरे पास जो कुछ भी है वह सबके लिए है। परिवार; समाज व देश के लिए है। यह सोचना व्यावहारिक हो सकता है। इससे समानता की अनुभूति की जा सकती है। केवल नारा बनकर अपरिग्रह नहीं रहेगा। वह व्यक्ति से प्रारम्भ होकर आगे बढ़ता है, जबकि समाजवाद व्यक्ति तक पहुंचता ही नहीं है । अपरिग्रह सम्पत्ति के उपभोग की सामान्य अनुभूति का नाम है, स्वामित्व का नहीं। अतः विश्व की भौतिकता उतनी भयावह नहीं है, उसका जिस ढंग से उपयोग हो रहा है, समस्याएं उससे उत्पन्न हुई हैं। अपरिग्रह की भावना एक और जहां आपस की छीना-झपटी, संचय-वृत्ति प्रादि को नियंत्रित कर सकती है, दूसरी मोर भौतिकता से परे प्राध्यात्म को भी इससे बल मिलेगा। वैचारिक उदारता:
विश्व में जितने झगड़े अर्थ और भौतिकवाद को लेकर नहीं है, उतने आपस की आपसी-विचारों की तनातनी के कारण हैं। हर व्यक्ति अपनी बात कहने की धुन में दूसरे की कुछ सुनना ही नहीं चाहता। पहले शास्त्रों की बातों को लेकर वादविवाद तथा प्राध्यात्मिक स्तर पर मतभेद होते थे। आज के व्यक्ति के पास इन बातों के लिए समय ही नहीं है। रिक्त हो गया है वह शास्त्रीय-ज्ञान से। किन्तु फिर भी वैचारिक मतभेद हैं । अब उनकी दिशा बदल गई है । अब सीमा-विवाद पर झगड़े हैं, नारों की शब्दावली पर तनातनी है, लोकतंत्र की परिभाषाओं पर गरमागरमी है । साहित्य के क्षेत्र में हर पढ़ने-लिखने वाला अपने मानदण्डों की स्थापनाओं में लगा हुआ है । भाषा के माध्यम को लेकर लोग खेमों में विभक्त हैं। ऐसी स्थिति में जैन धर्म या किसी भी धर्म की भूमिका क्या हो, कहना कठिन है । किन्तु जैन धर्म
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