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________________ एकादश जैन धर्म : बदलते सन्दर्मों में भगवान महावीर के युग और आज के परिवेश में पर्याप्त अन्तर हया है। उस समय जिस धार्मिक अनुशासन की आवश्यकता थी उसकी पूर्ति महावीर ने की। उनके धर्म को प्राज 2500 वर्ष से अधिक समय हो गया जब सब कुछ परिवर्तित हुआ है। प्रत्येक युग नए परिवर्तनों के साथ उपस्थित होता है । कुछ परम्परामों को पीछे छोड़ देता है । किन्तु कुछ ऐसा भी शेष रहता है, जो अतीत और वर्तमान को जोड़े रहता है । बौद्धिक मानस इसा जोड़ने वाली कड़ी को पकड़ने और परखने का प्रयत्न करता है अत: माज के बदलते हुए संदर्भो में प्राचान प्रास्थानों, मूल्यों एवं चिन्तनधाराओं की सार्थकता की अन्वेषणा स्वाभाविक है । जैन धर्म मूलतः बदलते हुए सन्दर्मों का ही धर्म है। वह आज तक किसी सामाजिक कटघरे, राजनैतिक परकोटे तथा वर्ग और भाषागत दायरों में नही बंधा । यथार्थ के धरातल पर वह विकसित हमा है । तथ्य को स्वीकारना उसकी नियति है, चाहे वे किसी भी युग के हों, किसी भी चेतना द्वारा उनका आत्म-साक्षात्कार किया गया हो । व्यापक परिप्रेक्ष्य : वर्तमान युग जैन धर्म के परिप्रेक्ष्य में बदला नहीं, व्यापक हुआ है । भगवान् ऋषभ देव ने श्रमण धर्म की उन मूलभूत शिक्षाओं को उजागर किया था जो तात्कालिक जीवन की आवश्यकताएं थीं । महावीर ने अपने युग के अनुसार इस धर्म को और अधिक व्यापक किया। जीवन-मूल्यों के साथ-साथ जीव-मूल्य की भी बात उन्होंने कही । आचारण की अहिंसा का विस्तार वैचारिक अहिंसा तक हुमा । व्यक्तिगत उपलब्धि, चाहे वह ज्ञान की हो या वैभव की, अपरिग्रह द्वारा सार्वजनिक की गई । शास्त्रकारों ने इसे महावीर का गृह-त्याग, संसार से विरक्ति प्रादि कहा, किन्तु वास्तव में महावीर ने एक घर, परिवार एवं नगर से निकल कर सारे देश को अपना लिया था। उनकी उपलब्धि अब प्राणि-मात्र के कल्याण के लिए समर्पित थी। इस प्रकार उन्होंने जैन-धर्म को देश और काल की सीमामों से परे कर दिया था। इसी कारण जैन-धर्म विगत ढाई हजार वर्षों के बदलते सन्दर्भो में कहीं खो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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