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________________ अपरिग्रह के नये क्षितिज 63 के धनी हमारी उंगलियों पर नहीं चढ़ते । युवापीढी के कलाकारों, चरित्रवान् युवकों व चिन्तनशील व्यक्तियों की हमें पहिचान नहीं रही। बनावटीपन की इस भीड़ में महावीर का चिन्तन कहीं खो गया है । जीवन-मूल्य को हमने इतना अधिक पकड़ लिया है कि जीव-मूल्य हमारे हाथ से छिटक गया है। और जब जीव का मात्मा का, निर्मलता का मूल्य न रह गया तो जड़ता ही पनपेगी। कीचड़ ही कीचड़ नजर पायेगा। भगवान महावीर का चिन्तन यहीं से प्रारम्भ होता है। परिग्रह के इन परिणामों से वे परिचित थे । वे जानते थे कि व्यक्ति जब तक स्वय का स्वामी नहीं होगा, वस्तुए उस पर राज्य करेंगी। उसे इतना मूच्छित कर देंगी कि वह स्वयं को न पहिचान सके । जिस शरीर को उसने घरोहर के रूप में स्वीकार किया है, उस शरीर की वह स्वयं धरोहर हो जाय इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी? अतः महावीर ने प्रात्मा और शरीर के भेद, विज्ञान से ही अपनी बात प्रारम्भ की है। बिना इसके अहिंसा, अपरिग्रह आदि कुछ फलित नहीं होता। अतः अपरिग्रह की साधना के लिए मूर्छा को तोड़ना आवश्यक है। ____ माधुनिक सन्दर्भ में अपरिग्रही होना कठिन नहीं है। समझ का फेर है । साधन-सम्पन्न व्यक्ति आज हर तरह से पूर्ण होना चाहता है, निर्भय होना चाहता है । और चाहता है कि उसका सुव अपरिमित हो, कभी न समाप्त होने वाला। इस सबके साथ वह धार्मिक भी रहना चाहता है। समाज में प्रतिष्ठित भी। इस सबके लिए उसने दो रास्ते अपनाकर देख लिए। त्याग का और संग्रह का मार्ग । हजारों वर्षों से वह दान करता मा रहा है, करोड़ों का उसने संग्रह भी किया है। किन्तु छोड़ने और बटोरने की इस प्रापाधापी मे उसने जीवन को जिया नहीं। हमेशा उसका कर्तापन, अहं सिर उठाकर खड़ा रहा है। इसीलिए उसकी अन्य उपलब्धियां बौनी रह गयीं। वह जमाखोर, पूजीपति पाखण्डी न जाने किन-किन नामों से जाना जाता रहा है । अतः अब ये दोनों रूप बदलने होंगे। __ सही मार्ग खोजने में महावीर का चिन्तन बहुत उपयोगी है । उन्होंने अहिंसा से अपरिग्रह तक का मार्ग प्रशस्त किया। उनकी पहली शर्त है कि तुम अपना गन्तव्य निश्चित करो। बनावटीपन के रास्ते पर चलना है तो स्वप्न में जीने के अनेक ढंग हैं । और यदि बाहर-भीतर एक-सा रहना है तो प्रात्मा और शरीर की सही पहिचान कर लो। प्रात्म-ज्ञान जितना बढ़ता जायेगा, उतने तुम अहिंसक होते जाओगे। जगत् के प्राणियों के अस्तित्व को अपने जैसा स्वीकारने से तुम उनके साथ झूठ नहीं बोल सकते । कपट नहीं कर सकते। शरीर से स्वामित्व मिटते ही चोरी नहीं की जा सकती। क्योंकि तुम्हारी प्रात्मा के विकास के लिए किसी परायी वस्तु की अपेक्षा नहीं है। सत्य और अस्तेय को जीने वाला व्यक्ति परिग्रह में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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