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________________ 62 जैन धर्म और जीवन-मूल्य परिग्रह-संचय का तीसरा कारण मनोवैज्ञानिक है। हर व्यक्ति सुरक्षा में जीना चाहता है। सुरक्षा निर्भयता से प्राती है और निर्भयता पूर्णता से । व्यक्ति अपने शरीर की क्षमता को पहिचानता है । उसे अंगरक्षक चाहिए, सवारी चाहिए, धूप एवं वर्षा से बचाने के लिए महल चाहिए, और वे सब चीजें चाहिए जो शरीर की कोमलता को बनाए रखें। इसीलिए इस जगत् में अनेक वस्तुओं का संग्रह है। शरीर की अपूर्णता वस्तुप्रों से पूरी की जाती है । शरीर के सुख का जितना अधिक ध्यान है, वह उतनी ही अधिक वस्तुप्रों के संग्रह का पक्षपाती है। इन वस्तुमों के सामीप्य से व्यक्ति निर्भय बनना चाहता है । धर्म, दान-पुण्य उसके शरीर को स्वर्ग की सम्पदा प्रदान करेंगे इसलिए उसने धर्म को भी वस्तुओं की तरह संग्रह कर लिया है । वस्तुओं को उसने अपने महल में संजोया है । धर्म को अपने बनाये हुए मन्दिर में रख दिया है । इस तरह इस लोक और परलोक दोनों जगह परिग्रही अपनी सुरक्षा का इंतजाम करके चलता है। आधुनिक युग में परिग्रही होने के कुछ पोर कारण विकसित हो गये हैं । भय के वैज्ञानिक उपकरण बढ़े हैं। प्रतः उनसे सुरक्षित होने के साधन भी खोजे गये हैं। वर्तमान से असतोष एवं भविष्य के प्रति निराशा ने व्यक्ति को अधिक परिग्रही बनाया है। पहले स्वर्ग के सुख के प्रति प्रास्था होने से व्यक्ति इस लोक में अधिक सखी होने का प्रयत्न नहीं करता था। अब वह भ्रम टूट गया। प्रतः साधन सम्पन्न व्यक्ति यहीं स्वर्ग बनाना चाहता है । स्वर्ग के सुखों के लिए रत्न, अप्सरकाये प्रादि चाहिए सो व्यक्ति जिस किसी तरह से उन्हें जुटा रहा है। और उस व्यय को रोक रहा है जो वह धर्म पर खर्च करता था। पहले व्यापार पौर धर्म साथसाथ थे, अब धर्म में भी व्यापार प्रारम्भ हो गया है। परिग्रह के प्रति इस प्रासक्ति के विकसित होने में आज की युवा पीढी भी एक कारण है । पहले व्यक्ति अपने परिवार व सम्पत्ति के प्रति इसलिए ममत्त्व को कम कर देता था कि उसे विश्वास होता था कि उसके परिवार व व्यापार को उसकी सन्तान सम्हाल लेगी। वृद्धावस्था में वह निःसंग होकर धर्म-ध्यान कर सकेगा । कारण कुछ भी हों किन्तु परिवार के मुखिया को प्राज की युवापीढ़ी में यह विश्वास नहीं रहा । वह अपने लिए तो परिग्रह करता ही है, पुत्र में ममत्व होने से उसके लिए भी जोड़कर रख जाना चाहता है। न केवल पुष अपितु दामादों का पोषण भी पुत्री के पिता के उपर आ गया है । ऐसी स्थिति में यदि वह परिग्रह न करे तो करे क्या ? समाज में तो उसे रहना है। वर्तमान सामाजिक मूल्यों से भी अपरिग्रह-वृत्ति प्रभावित हुई है। चक्रवतियों व सामन्तों का वैभव साहित्य में पढ़ते-पढ़ते हमारी प्रांखें उससे चौंधिया गयीं हैं। समाज में हमने उसे प्रतिष्ठा देनी प्रारम्भ कर दी है जो वैभवसम्पन्न है । नैतिक मूल्यों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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